________________ स्वामि कार्तिकेयानुप्रेक्षा की विशेषता 281 6. उत्तम संयम धर्म-गमन करना, बैठना, कुछ वस्तु जमीन पर से लेना अथवा रखना आदि कार्य जीव रक्षण का हेतु रखकर ही मुनिजन करते हैं। तृण का पत्ता भी वे नहीं तोडते हैं। वे अपनी इन्द्रियाँ अपने वश में रखते हैं। स्थावर तथा त्रस जीवों का रक्षण करते हैं। 7. उत्तम तपोधर्म-इहलोक में तथा परलोक में मुझे सुख मिले ऐसे हेतु के बिना वे तप करते हैं। रागद्वषरहित होकर समता भाव से नाना प्रकार के तप करते हैं। माया, मिथ्यात्व, निदानवश तप नहीं करते हैं। 8. उत्तम त्याग--जो साधु रागद्वेष उत्पन्न करनेवाले उपकरणों का त्याग करते हैं, मिष्ट भोजन का त्याग करते हैं, रागद्वेषवर्धक वसति का त्याग करते हैं, ऐसे साधु का यह त्याग आत्महित का हेतु होता है / 9. उत्तम आकिंचन्य धर्म-मानसन्मान की आशा छोडकर बाह्याभ्यन्तर चेतन अचेतन परिग्रहों का त्याग साधु करते हैं / यह साधु शरीरपर निःस्पृह होते हैं / निर्मम होने से उनकी कर्म निर्जरा अधिक होती है / शिष्योंपर भी निर्मम होने से आत्मानुभव का स्वाद उनको प्राप्त होता है / 10. उत्तम ब्रह्मचर्य-ये जैन साधु चार प्रकार के स्त्रियों के त्यागी होते हैं। उनके रूप का अवलोकन नहीं करते हैं। कामकथादिकों के वे त्यागी होते हैं / तरुण स्त्रियों के कटाक्ष बाणों से उनका मन विद्ध नहीं होने से वे ही वास्तविक शूर हैं। वे साधु पंचमहाव्रतो के पालक होते हैं, पुण्यप्राप्ति के लिये वे उत्तमक्षमादि धर्म धारण नहीं करते हैं / क्योंकि पुण्य भी संसारवर्धक है / वे साधु बाह्याभ्यंतर तपश्चरणों से तत्पर रहते हैं / आर्त तथा रौद्र ध्यान छोडकर धर्म ध्यान में लीन रहते हैं। सम्यग्दर्शन के निःशंकितादि आठ गुणों को पालते हुए वे सम्यक्त्व में अतिशय दृढ रहते हैं। यतियों के समता, स्तुतिवंदनादि षट्कर्म जो कि आवश्यक हैं उनका आचरण आलस्य रहित होकर करते हैं। इस प्रकार स्वामि कार्तिकेयाचार्य ने 'धर्मानुप्रेक्षा में ' गृहस्थ धर्म तथा मुनिधर्म का वर्णन किया। अंतिम दो गाथा में उन्होंने जो अभिप्राय व्यक्त किया है वह इस प्रकार है बारसअणुपेक्खाओ भणिया हु जिणागमाणुसारेण / जो पढइ सुणइ भावइ सो पावइ सासयं मोक्खं // 488 // तिहुवणपहाणस्वामि कुमारकाले वि तविय तवयरणं / वसुपुजसुयं मल्लिं चरमतियं संथुवे णिच्चं // 489 // जिनागम के अनुसार मैंने बारा भावनाओंका वर्णन किया है इसको जो पढेगा, श्रवण करेगा तथा मनन करेगा उसको शाश्वत सुख-मुक्तिसुख मिलेगा // 490 // जो त्रैलोक्य के स्वामी हैं, जिन्होंने कुमार काल में भी तपश्चरण किया ऐसे वासुपूज्य, मल्लीनाथ, नेमी-पार्श्व सन्मति-महावीर इन पांच तीर्थकरों की मैं नित्य स्तुति करता हूं / // 491 // इस प्रकार अंतिम मंगल स्तुति कर ग्रंथ समाप्त किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org