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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी की काव्य-क्षणिकाए १. ओ बन्दी देख !
३. आस्तिक-नास्तिक ओ बन्दी ! तू पूछता है-पराजय क्या है ?
नास्तिक ने आत्मा का अस्तित्व न माना तो क्या ? पराजय है विदेशी सत्ता के सामने आत्मसमर्पण !
उसके पास विधि का अक्षय कोष है ! विदेशी तेरे देश के हर कोने में घुसता जा रहा है
आस्तिक ने आत्मा का अस्तित्व माना तो औ सोख रहा है तेरी देह से अनवरत रक्त
उसे एक के बदले विशाल निषेध शास्त्र को रचना पड़ा! यही रक्त सींच रहा है विदेशी शासन के तरु मूल को ताकि उसमें खिल सकें तरह तरह के रंग बिरंगे फूल
४. संघे शक्ति कलौ युगे देख ! यही तेरी परतन्त्रता है !
उधर मेरे साथी भी तो खड़े हैं ! विदेशी किस्म के फल फूलों ने तुझे इतना लुभाया है
पुकार पुकार कर कह रहे हैं ! देख ! यही है तेरी परतन्त्रता का हेतु !
अरे ! परलोक किसने देखा है ! विदेशी सेना तुझे एक ऐसे दुर्ग में बन्दी बना चुकी है
विजय का आनन्द किसने लूटा है !! जिसके पांचों द्वारों में लगे हैं कंटीले तारों के घने जाल
ये पौद्गलिक सुख हमें प्रत्यक्ष हैं ! ओ बन्दी ! माना शासक उदार दिल का है
ये भोग हमारे निःसर्ग हैं !! तो कुछ सुविधाएं भी मिल सकती हैं !
इन्हें पराजय कौन कहता है ? फिर भी देख ! बन्द ही पड़े हैं स्वतन्त्रता के द्वार !
वर्तमान को छोड़ रहा है ! फूलों की जिस सेज में तू सोया है
भविष्य के लिए दौड़ रहा है !! इनके केशर में उलझ गए हैं तेरे पैर ! .. जरा देख ! बन्द ही पड़े हैं मुक्ति के द्वार
अरे निपट मूर्ख है ! ये हीरों का हार उपहार नहीं है
शब्द-रूप-रस-गन्ध-स्पर्श ! यह है तेरी आखों का मनमोहक उपहास
सुख दुःख के हमारे साथी हैं ! परन्तु देख ! बन्द ही पड़े हैं ज्योति के द्वार !
इनके दुर्भेद्य संघ को भलाजिस प्रासाद में तू बन्दी है वह है शत्रु का विजय स्तूप !
पराजित कौन कर सकता है ? जिसमें पराजित व्यक्ति सदैव गाता है विषमता के गीत
अपन भी सबके साथ ही चलेंगे ! ओ बन्दी देख ! बन्द ही पड़े हैं समता के द्वार !
जो सबके साथ होगा!
वही अपन का भी सही !! २. विवशता ओ सर्वज्ञ ! मैं तेरा मार्ग कैसे जानूं ?
५. कर्मण्येवाधिकारस्ते देखो न ! ये कजरारे बादल मंडरा रहे हैं !
"कर्म में तेरा अधिकार है, फल में नहीं" ढांक दिया है इन्होंने मेरी आखों के प्रकाश को !
सदियों से मनुष्य इसे गाता आया है ! ओ सर्वदर्शिन् ! मैं तुझे अब कैसे देखू ?
परन्तु तरु उसे साक्षात् निभाता आया है !! देखो न ! इन गगन चुम्बी अट्टालिकाओं को !
झुके हुए आम्र वृक्ष ने सम्बोधित कियाकैद कर ली है इन्होंने मेरी पारदर्शी दृष्टि को !
"फल देने के लिए होता है अपने लिए नहीं" ओ निर्विघ्न ! मैं तेरे पास कैसे आऊँ ?
कच्चे फलों को मैं बाधे रखता हूँ तेरे सिंह द्वार पर बैठे हैं भयंकर प्रहरी !
क्योंकि वे खट्टे होते हैं, अबोध होते हैं ! बिछा दिए हैं जिन्होंने काटों के कंटीले जाल !
मिठास उनमें जब आती है ओ वीतरागी ! मैं तेरे पथ पर कैसे चलूं?
तो उन्हें दे दिया करता हूँ उन्मत्त हो चुका हूं सुनहरे सपनों की मादकता से
तरु ने फल को समझाया मैं आना चाहता हूं मगर पैर लड़खड़ा रहे हैं !
"भला परिपक्व के लिए कैसा बन्धन" ! सृजन-संकल्प
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