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स्याद्वाद सिद्धान्त एक अनुशीलन ३१५ इसके विपरीत पुरुषार्थवादी का घोष है कि पुरुषार्थ से ही सब कुछ होता है। बिना पुरुषार्थ के तो भोजन का ग्रास भी मुंह में नहीं जा सकता ।
इसी प्रकार के अन्यान्य एकान्तिक संघर्ष भी दार्शनिकों द्वारा प्रस्तुत वे अपने-अपने दृष्टिकोणों को अपनी-अपनी समर्थक युक्तियों, प्रमाणों द्वारा परन्तु दूसरे के दृष्टिकोण को समझने और उसका समन्वय करने का प्रयास नहीं करते हैं । स्याद्वाद इन एकान्तिक दृष्टिकोणों को समझाने का प्रयत्न करने के साथ-साथ समन्वय का मार्ग भी सुझाता है । स्याद्वाद ने सप्तभंगों के माध्यम से एक ऐसी अभिनव विचार एवं कथन शैली व्यक्त की, जिससे सभी एकान्तवादियों का उपसंहार करते हुए उनके कथन की प्रामाणिकता का स्तर निर्धारित किया गया है।
सर्वथा भावात्मक और सर्वथा अभावात्मक दृष्टिकोण के सम्बन्ध में स्याद्वाद अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए बतलाता है कि वस्तु को कथंचित् भावरूप और कथंचित् अभावरूप मानिये । दोनों को सर्वथा, सब प्रकार से केवल भावात्मक ही मानने में दोष है । क्योंकि केवल भावरूप ही वस्तु को मानने पर प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव और अत्यन्ताभाव इन अभावों का लोप हो जायेगा और उनके लोप होने पर वस्तु क्रमश: अनादि, अनन्त, सर्वात्मक और स्वरूपहीन हो जायेगी। इसी प्रकार वस्तु को केवल अभावरूप मानने पर भाव का लोप जायेगा और उसका लोप हो जाने से अभाव का साधक ज्ञान अथवा वचनरूप प्रमाण भी नहीं रहेगा । तब किसके द्वारा भावैकान्त का निराकरण और अभावैकान्त का समर्थन किया जा सकेगा ? परस्पर विरुद्ध होने से दोनों एकान्तों का मानना एकान्तवादियों के लिये सम्भव नहीं है और अवाच्यैकान्त तो अवाच्य होने से ही अयुक्त है । अतएव वस्तु कथंचित्स्व द्रव्य क्षेत्र काल और भाव की अपेक्षा से अस्तित्व भावरूप है और कथंचित्-पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से नास्तित्व-अभावरूप है। जैसे पड़ा अपनी अपेक्षा से अस्तित्वरूप है और वस्त्रादि पर पदार्थों की अपेक्षा से नास्तित्व-अभावरूप है। इस तरह उसमें अपेक्षा भेद से दोनों विधि-निषेध धर्म विद्यमान हैं । समस्त पदार्थों की स्थिति इसी प्रकार की है । अतः भाववादी का भी कहना सत्य है और अभाववादी का कथन भी सत्य है परन्तु शर्त यह है कि दोनों को अपने-अपने एकान्ताग्रह को छोड़कर दूसरे की दृष्टि का आदर करना चाहिये ।
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वस्तु के एक और अनेक विषयक संघर्ष का समाधान करते हुए स्याद्वाद का कथन है कि वस्तु (सर्व पदार्थ समूह ) सत्सामान्य ( सत्रूप) से तो एक है और द्रव्यादि के भेद से अनेक रूप है। यदि उसे सर्वधा एक (अद्वैत) मानी जाये तो प्रत्यक्षदृष्ट कार्य-कारण भेद लुप्त हो जायेगा, क्योंकि एक ही स्वयं उत्पाद और उत्पादक दोनों नहीं बन सकता है। उत्पाद्य और उत्पादक दोनों अलग-अलग होते हैं। इसके सिवाय सर्वथा अद्वैत को स्वीकार करने पर पुण्य-पाप का द्वैत, सुख-दुःख का द्वैत, इहलोक-परलोक का द्वैत विद्या अविद्या का द्वैत और बन्ध-मोक्ष का द्वैत आदि नहीं बन सकते । इसी प्रकार यदि वस्तु सर्वथा अनेक ही हो तो सन्तान (पर्यायों और गुणों में अनुस्यूत रहने वाला एक द्रव्य), समुदाय, साधर्म्य और प्रेत्यभाव आदि कुछ नहीं बन सकेंगे। अतएव दोनों एकान्तों का समुच्चय ही वस्तु है । इसलिये दोनों एकान्तवादियों को अपने एकान्त हठ को त्याग कर दूसरे सिद्ध होती है और विरोध अथवा
के अभिप्राय का आदर करना चाहिए। ऐसी स्थिति में पूर्ण वस्तु अन्य कोई दोष उपस्थित नहीं होता ।
किये जा सकते हैं। स्पष्ट भी करते हैं।
सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य वस्तु को मान्य करने के बारे में स्याद्वाद यथार्थता उपस्थित करते हुए बतलाता है कि वस्तु कथंचित् नित्य भी हैं और कथंचित् अनित्य भी है। द्रव्य की अपेक्षा से तो वह नित्य और पर्याय की अपेक्षा से अनित्य है । वस्तु केवल द्रव्य रूप नहीं है, क्योंकि परिणामभेद और बुद्धिभेद पाया जाता है। केवल पर्याय रूप ही नहीं है, क्योंकि यह वही है, जो पहले था,
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