________________
१२ अभावप्रमाणदूषणसिद्धि - बारहवां प्रकरण अभावप्रमाणदूषणसिद्धि है । इसमें सर्वज्ञका अभाव बतलाने के लिये भाट्टों द्वारा प्रस्तुत अभावप्रमाणमें दूषण प्रदर्शित किये गये हैं और उसकी अतिरिक्त प्रमाताका निराकरण किया गया है। इसमें १६ कारिकाएँ निबद्ध हैं ।
१३. तर्कप्रामाण्यसिद्धि-तेरहवां प्रकरण तर्कप्रामाण्यसिद्धि है । इसमें अविनाभावरूप व्याप्तिका निश्चय करानेवाले तर्कको प्रमाण सिद्ध किया गया है और यह बतलाया गया है कि प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे अविनाभावका ग्रहण नहीं हो सकता। इसमें २१ कारिकाएँ हैं ।
१४.'''''''''चौदहवां प्रकरण अधूरा है और इसलिये इसका अन्तिम समाप्तिपुष्पिकावाक्य उपलब्ध न होनेसे यह ज्ञात नहीं होता कि इसका नाम क्या है ? इसमें प्रधानतया वैशेषिकके गुण-गुणीभेदादि और समवायादिकी समालोचना की गई है । अतः सम्भव है इसका नाम 'गुण- गुणीअभेदसिद्धि' हो । इसमें ७० कारिकाएँ उपलब्ध हैं । इसकी अन्तिम कारिका, जा खण्डित एवं त्रुटित रूपमें है, इस प्रकार हैतद्विशेषणभावाख्यसम्बन्धे तु न च (चा?) स्थितः ।
11 90 11
समवा
ब्रह्मदूषणसिद्धि- - उपलब्ध रचनामें उक्त प्रकरणके बाद यह प्रकरण पाया जाता है । मूडबिद्रीकी ताडपत्र- प्रतिमें उक्त प्रकरणकी उपर्युक्त 'तद्विशेषण' आदि कारिकाके बाद इस प्रकरणकी ' तन्नो चेद्ब्रह्मनिर्णीति' आदि ५२वीं कारिका के पूर्वार्द्ध तक सात पत्र त्रुटित हैं । इन सात पत्रों में मालूम नहीं कितनी कारिकाएँ और प्रकरण नष्ट हैं । एक पत्र में लगभग ५० कारिकाएँ पाई जाती हैं और इस हिसाब से सात पत्रोंमें ५० x ७ = ३५० के करीब कारिकाएँ होनी चाहिये और प्रकरण कितने होंगे, यह कहा नहीं जा सकता । अतएव यह 'ब्रह्मदुषणसिद्धि' प्रकरण कौनसे नम्बर अथवा संख्यावाला है, यह बतलाना भी अशक्य है । इसका ५१३ कारिकाओं जितना प्रारम्भिक अंश नष्ट है । ब्रह्मवादियोंको लक्ष्य करके इसमें उनके अभिमत ब्रह्ममेंदूषण दिखाये गये हैं । यह १८९ ( त्रुटित ५१३ + उपलब्ध १३७ ३ = ) कारिकाओं में पूर्ण हुआ है और उपलब्ध प्रकरणोंमें सबसे बड़ा प्रकरण है ।
अन्तिम प्रकरण - उक्त प्रकरणके बाद इसमें एक प्रकरण और पाया जाता है और जो खण्डित है तथा जिसमें सिर्फ आरम्भिक ६३ कारिकाएँ उपलब्ध हैं । इसके बाद ग्रन्थ खण्डित और अपूर्ण हालत में विद्यमान है । चौदहवें प्रकरणकी तरह इस प्रकरणका भी समाप्तिपुष्पिकावाक्य अनुपलब्ध होनेसे इसका नाम ज्ञात नहीं होता । उपलब्ध कारिकाओंसे मालूम होता है कि इसमें स्याद्वादका प्ररूपण और बौद्धदर्शन के अपोहादिका खण्डन होना चाहिए।
अन्य ग्रन्थकारों और उनके ग्रन्थवाक्योंका उल्लेख
ग्रन्थकारने इस रचनामें अन्य ग्रन्थकारों और उनके ग्रंथवाक्योंका भी उल्लेख किया है। प्रसिद्ध मीमांसक विद्वान् कुमारिल भट्ट और प्रभाकरका नामोल्लेख करके उनके अभिमत भावना और नियोगरूप वेदवाक्यार्थका निम्न प्रकार खण्डन किया है
नियोग- भावनारूपं
भिन्नमर्थद्वयं तथा
भट्ट प्रभाकराभ्यां हि वेदार्थत्वेन निश्चितम् ॥६- १९॥
इसी तरह अन्य तीन जगहोंपर कुमारिल भट्टके मीमांसाश्लोकवातिकसे 'वार्तिक' नामसे अथवा उसके बिना नामसे भी तीन कारिकाएँ उद्धृत करके समालोचित हुई हैं और जिन्हें ग्रन्थका अङ्ग बना लिया गया है । वे कारिकाएँ ये हैं
Jain Education International
२९०
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org