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________________ काल-यह भी विश्व के छह द्रव्यों में से एक अमूर्त द्रव्य है जो व्यवहार और निश्चय के भेद से दो प्रकार का होता है। निश्चय काल के सूक्ष्म कालाणु आकाश-प्रदेशों में मणियों के समान विद्यमान रहते हैं। ये कालाणु अदृश्य, अनाकार, अक्रिय और अमिश्रणीय होते हैं / ये अनादि और अनंत होते हैं। इनके विपर्यास में, व्यवहार काल सादि और सान्त होता है। प्रो० एडिंग्टन का अनुमान है कि व्यवहार काल के मूल में निश्चय काल होना चाहिये / सापेक्षवाद के अनुसार, यदि पदार्थ या द्रव्य न हों, तो काल भी नहीं रहता। इसीलिये अलोकाकाश में पदार्थों के अभाव से काल द्रव्य का अस्तित्व नहीं माना जाता। काल के मापन के लिये दो प्रकार के यूनिट काम आते हैं। समय के लघु अन्तरालों के मापन में निमेष (0.25 सेकंड) अथवा प्रतिविपलांश (0.00011 सेकंड) काम आते हैं / दीर्घ अन्तरालों के लिये हिन्दू पुराणों में महायुग (43,20,000 वर्ष) और कल्पकाल 1000 महायुग) का प्रयोग किया गया है / जैन मान्यता के अनुसार कल्पकाल में वर्षों की संख्या 77 अंकों की होती है जबकि हिन्दू मान्यता में यह दस अंकों का ही है / विश्व का आदि और अन्त-हिन्दू पुराणों के अनुसार ब्रह्मा दिन में सृष्टि का निर्माण करते हैं और रात्रि में उसे विलीन करते हैं। इस दैनिक प्रलय को नैमित्तिक या खंड प्रलय कहते हैं। इसमें विश्व के समस्त पदार्थ एक स्थान पर केन्द्रित हो जाते हैं। लेकिन ब्रह्मा की प्रत्येक 100 वर्ष की आयु पूर्ण होने पर संसार का महाप्रलय होता है जब कि विश्व की प्रत्येक वस्तु अपघटित होकर ब्रह्मा में विलीन हो जाती है। इसके बाद वह पुनः सृष्टि का प्रारंभ करता है। इस प्रकार नैमित्तिक एवं महाप्रलय तथा सृष्टि-निर्माण की प्रक्रिया का चक्र चलता रहता है। ___ इस वर्णन के विपर्यास में, जैनों के अनुसार विश्व का यह चक्र उत्सर्पिणी और अवपिणी कालों के रूप में निरंतर प्रकृत्या ही चलता रहता है। अवसर्पिणी काल के अन्त में 49 दिन में खंड प्रलय के समान स्थिति बनती है लेकिन इसके बाद 35 दिन में जीवन पुनः पूर्ववत हो जाता है। आधुनिक वैज्ञानिकों के अनुसार, विश्व में एन्ट्रोपी की निरंतर वृद्धि से, सौर ऊर्जा के निरंतर विकिरण के कारण सूर्य के द्रव्यमान के शून्य होने से अथवा उत्तरी ध्रुव या दक्षिणी ध्रुवों के घूर्णन के कारण एक दूसरे का स्थान ग्रहण करने से विश्व में प्रलय संभावित है। उदाहरणार्थ, ध्रुवों के घूर्णन से पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र में विचलन होता है और जब एक ध्रुव दूसरे ध्रुवों पर पहुँचता है, तब यह क्षेत्र शून्य चुंबकीय शक्ति के माध्यम से आगे विरोधी दिशा में परिवर्तित होता है / ध्रुवों का इस प्रकार का धूर्णन साढ़े सात लाख वर्ष में एक बार होता है / इस प्रकार का पिछला घूर्णन कोई सात लाख वर्ष पूर्व हुआ था। उस समय चुंबकीय क्षेत्र के अभाव में कास्मिक किरणें पृथ्वी पर पड़ी और प्रलय छा गया था। अब 50,000 वर्ष बाद फिर ऐसी ही स्थिति संभव है। जैन शास्त्रों में भी इसी प्रकार का एक अनुमान लगाया गया है / विश्व के इस प्रलय की एक सूचना 30 जून 1908 में रूस में हुये एक विशिष्ट विस्फोट से भी मिलती है जिसमें एक आकाशीय प्रतिपिंड भूतल से टकरा गया होगा। यह पिंडप्रतिपिंड की टक्कर कभी भी हो सकती है। लेकिन जैन मान्यता के अनुसार यह खंड प्रलय ही होगा, विश्व का अन्त नहीं। इस प्रकार विश्व अनादि और अनन्त है जिसमें सृष्टि एवं खंड प्रलय का चक्र चलता रहता है। - 387 - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212227
Book TitleSpace Time and The Universe
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG R Jain
PublisherZ_Kailashchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012048.pdf
Publication Year1980
Total Pages13
LanguageEnglish
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size2 MB
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