________________
४०२
जैन विद्या के गति में जा सकता है, उतना ही उच्च गति में जा सकता है। कुछ प्राणी ऐसे हैं जो निम्न गति में बहुत निम्न स्थिति तक नहीं जाते, किन्तु वे सभी उच्च गति में भी समान रूप से जाते हैं, जैसे सम्मूर्च्छिम जीव प्रथम नरक से आगे नहीं जा सकते, परिसर्प आदि द्वितीय नरक से आगे नहीं जा सकते, पक्षी तृतीय नरक से आगे नहीं जा सकते, चतुष्पद चतुर्थ नरक से आगे नहीं जा सकते, सर्प पंचम नरक से आगे नहीं जा सकते। इस प्रकार निम्न गति में जाने से इन सब में भिन्नता है, किन्तु उच्चगति में ये सभी सहस्रार स्वर्ग तक बिना किसी भेदभाव के जा सकते हैं। इसलिये यह कहना कि जो जितनी निम्न गति तक जाने में सक्षम होता है, वह उतनी ही उच्च गति तक जाने में सक्षम होता है, तर्कसंगत नहीं है । अधोगति में जाने की अयोग्यता से उच्च गति में जाने की अयोग्यता सिद्ध नहीं होती।
यदि यह कहा जाय कि वाद आदि की लब्धि से रहित, दृष्टिवाद के अध्ययन से वंचित, जिनकल्प को धारण करने में असमर्थ और मन:पर्यय ज्ञान को प्राप्त न कर पाने के कारण स्त्री की मुक्ति नहीं हो सकती, तो फिर यह मानना होगा कि जिस प्रकार आगम में जम्बूस्वामी
पश्चात् इन जिन बातों के विच्छेद का उल्लेख किया गया है, उसी प्रकार स्त्री के लिये मोक्ष के विच्छेद का भी उल्लेख होना चाहिये था।
यदि यह माना जाय कि श्री दीक्षा की अधिकारिणी न होने के कारण मोक्ष की अधिकारिणी नहीं है, तो फिर आगमों में दीक्षा के अयोग्य व्यक्तियों की सूची में जिस प्रकार शिशु को दुध पिलाने वाली स्त्री तथा गर्भिणी स्त्री आदि का उल्लेख किया गया, उसी प्रकार सामान्य स्त्री का भी उल्लेख किया जाना चाहिये था।
पुनः यदि यह कहा जाय कि वस्त्र धारण करने के कारण स्त्री मोक्ष प्राप्ति की अधिकारिणी नहीं है अथवा दूसरे शब्दों में वस्त्ररूपी परिग्रह ही उसकी मुक्ति में बाधक है तो फिर प्रतिलेखन का ग्रहण आदि भी मुक्ति में बाधक क्यों नहीं होंगे? यदि प्रतिलेखन का ग्रहण, उसका संयम उपकरण होने के कारण परिग्रह के अन्तर्गत नहीं माना जाता है तो स्त्री के लिये वस्त्र भी जिनोपदिष्ट संयमोपकरण है, अतः उसे परिग्रह कैसे माना जा सकता है?
यद्यपि वस्त्र परिग्रह है, फिर भी भगवान् ने साध्वियों के लिये संयमोपकरण के रूप में उसको ग्रहण करने की अनुमति दी है, क्योंकि वस्त्र के अभाव में उनके लिये सम्पूर्ण चारित्र का ही निषेध हो जायेगा, अतः वस्त्र धारण करने में अल्प दोष होते हुए भी संयम पालन हेतु उसकी अनुमति दी गई है। जो संयम के पालन में उपकारी होता है, वह धर्मोपकरण या संयमोपकरण कहा जाता है, परिग्रह नहीं। अतः निर्मन्थी का वस्त्र संयमोपकरण है, परिग्रह नहीं ।
आगमों में साध्वी के लिये निर्ग्रन्थी शब्द का प्रयोग सर्वत्र हुआ है। यदि यह माना जाय कि वस्त्र ग्रहण परिग्रह ही है तो फिर आगम में उसके लिये इस शब्द का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिये था, क्योंकि निर्ग्रन्थ का अर्थ है परिग्रह से रहित यदि संयमोपकरण परिग्रह है तो फिर कोई मुनि भी निर्ग्रन्थ नहीं कहा जा सकता। यदि एक व्यक्ति वस्त्र और आभूषणों से सुसज्जित भी है किन्तु उसके मन में उनके
Jain Education International
आयाम खण्ड - ६
प्रति कोई ममत्व नहीं हो तो वह अपरिग्रही कहा जायेगा। इसके विपरीत एक व्यक्ति जो नग्न रहता है किन्तु उसमें ममत्व और मूर्च्छा का भाव है तो वह अचेल होकर भी परिग्रही ही कहा जायेगा। साध्वी इसलिये वस्त्र धारण नहीं करती है कि उसमें वस्त्र के प्रति कोई ममत्व है अपितु वह वस्त्र को जिनाज्ञा मानकर ही धारण करती है पुनः वस्त्र उसके लिये उसी प्रकार परिग्रह नहीं है, जिस प्रकार यदि किसी ध्यानस्थ नग्नमुनि के शरीर पर उपसर्ग के निमित्त से डाला गया वस्त्र उस मुनि के लिये परिग्रह नहीं होता। इसके विपरीत एक नग्न व्यक्ति भी यदि अपने शरीर के प्रति ममत्व भाव रखता है तो वह परिग्रही ही कहा जायेगा और ऐसा व्यक्ति नग्न होकर भी मोक्ष प्राप्ति के अयोग्य ही होता है। जबकि वह व्यक्ति जिसमें ममत्वभाव का पूर्णतः अभाव है, शरीर धारण करते हुए भी अपरिग्रह ही कहा जायगा। अतः जिनाशा । के कारण संयमोपकरण के रूप में वस्त्र धारण करते हुए भी नियमवान स्त्री अपरिग्रही ही है और मोक्ष की अधिकारिणी भी।
जिस प्रकार जन्तुओं से व्याप्त इस लोक में मुनि के द्वारा द्रव्यहिंसा होती रहने पर भी कषाय के अभाव में वह अहिंसक ही माना जाता है, उसी प्रकार वस्त्र के सद्भाव में भी निर्ममत्व के कारण साध्वी अपरिग्रही मानी जाती है। यह ज्ञातव्य है कि यदि हम हिंसा और अहिंसा की व्याख्या बाह्य घटनाओं अर्थात् द्रव्य हिंसा (जीवघात) के आधार पर न करके व्यक्ति के मनोभावों अर्थात् कषायों की उपस्थिति के आधार पर करते हैं, तो फिर परिग्रह के लिये भी यही कसौटी माननी होगी। यदि हिंसा की घटना घटित होने पर भी कषाय एवं प्रमाद का अभाव होने से मुनि अहिंसक ही रहता है, तो फिर वस्त्र के होते हुए भी मूर्च्छा के अभाव में साध्वी अपरिग्रही क्यों नहीं मानी जा सकती है।
स्त्री का चारित्र वस्त्र के बिना नहीं होता ऐसा अर्हत् ने कहा है। तो फिर स्थविरकल्पी आदि के समान उसकी मुक्ति क्यों नहीं हो सकती ? ज्ञातव्य है कि स्थविरकल्पी मुनि भी जिनाज्ञा के अनुरूप वस्त्र पात्र आदि ग्रहण करते हैं। पुनः अर्श, भगन्दर आदि रोगों में जिनकल्पी अचेल मुनि को भी वस्त्र ग्रहण करना होता है अतः उनकी भी मुक्ति सम्भव नहीं हो सकती।
पुनः अचेलकत्व उत्सर्ग-मार्ग है, यह बात जब तक सिद्ध नहीं होगी तब तक सचेल मार्ग को अपवाद मार्ग नहीं माना जायेगा। उत्सर्ग भी अपवाद सापेक्ष है । अपवाद के अभाव में उत्सर्ग, उत्सर्ग नहीं रह जाता। यदि अचेलता उत्सर्ग-मार्ग है तो सचेलता भी अपवादमार्ग है, दोनों ही मार्ग हैं, अमार्ग कोई भी नहीं हैं अतः दोनों से ही मुक्ति माननी होगी।
पुनः जिस तरह आगमों में आठ वर्ष के बालक आदि की दीक्षा का निषेध किया गया है, उसी प्रकार आगमों में यह भी कहा गया है कि जो व्यक्ति तीस वर्ष की आयु को पार कर चुका हो और जिसकी दीक्षा को उन्नीस वर्ष व्यतीत हो गये हों, वही जिनकल्प की दीक्षा का अधिकारी है। यदि मुक्ति के लिये जिनकल्प अर्थात् नग्नता आवश्यक होती, तो यह भी कहा जाना चाहिए था कि तीस वर्ष मे कम उम्र का व्यक्ति मुक्ति के अयोग्य है। किन्तु सभी परम्पराएँ एक मत से
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.