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________________ १७२ पं. जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [खण्ड मूलाधार और आज्ञा चक्र का मिलन एवं समायोजन इसका अर्थ है । नाड़ियों के रूप में इड़ा, विड़ा और पिंगला नाड़ियों का सन्तुलित समायोजन इसका अर्थ है । जो लोग चित्तवृत्ति निरोध को योग मानते हैं ( पतंजल ), उन्हें चित्त की वृत्तियों को चंचलता को रोक कर उन्हें परमात्मा की ओर एकाग्र करने की प्रक्रिया को अपनी योग परिभाषा में सम्मिलित करना चाहिये । अतः इस मान्यता के आधार पर योग के निम्न सोद्देश्य अर्थ हो जाते हैं : (i) आत्मा और परमात्मा के विषय में ज्ञान और चेतना के माध्यम से एकाग्रता का अभ्यास करना । (ii) परमात्मा की लगन लगाकर एकाग्रता का अभ्यास करना । ( iii ) परमात्मा के प्रति समर्पण भाव या तन्मयता जगाना । ( iv ) मन, वचन एवं शरीर को आत्मिक शक्ति संपन्न बनाना । (v) परमात्मा के उपदेशों पर ध्यान करना व शक्तियों का विकास करना। इन लक्षणों से राजयोग का एक अति सरल अर्थ भी प्रतिफलित किया गया है। मिलन की मधुरता स्मृतिपूर्वक होती है । स्मृति मनुष्य का स्वाभाविक गुण है । मनुष्य सदैव किसी न किसी वस्तु, व्यक्ति या परमात्मा के बारे में सोचता रहता है । यह स्पष्ट है जिसके विषय में सोचा जा रहा है, उसको स्मृति आती है। यह मिलन का ही एक रूप है । जब परमात्मा की स्मृति ( या उसके विषय में चेतना जागती है ) आती है, तब वह योग का रूप लेती है। सामान्यतः स्मृति तीन प्रकार की होती हैं-आने वाली, करने वाली और सताने वाली । आने वाली स्मृति विशेष गणों या कर्तव्यों के आधार पर आती है। उदाहरणार्थ, किसी ने हमारे ऊपर उपकार किया या कोई गुणी व्यक्ति है तो गुण या उपकार की चर्चा पर उसकी स्मृति आयेगी ही। करने वाली स्मृति स्वार्थ विशेष के आधार पर होती है। उदाहरणार्थ किसी को कोई कार्य अच्छी तरह करना आता है। यदि हमें कार्य करना हो तो उसकी सहायता पाने के लिये उसकी स्मृति आती है। ऐसा प्रतीत होता है कि यदि अमुक व्यक्ति न होगा, तो कार्य ठीक से न हो पायेगा। सताने वाली स्मृति निकट संबंधियों, हितैषियों या मित्रों के कारण होती है। बच्चे की मृत्यु पर मां-बाप को दुख होना स्वाभाविक है. पर समय-समय पर उसकी याद एक विशिष्ट अनुभूति के रूप में सताया करती है। ये सब सांसारिक • स्मृतियां हैं। योग आध्यात्मिक स्मृति का नाम है। उस स्मृति को समाने वाली स्मृति कहते हैं । उसके स्मरण से समताभाव जागृत होता है । जिस प्रकार बिजली के दो तारों को जब आपस में जोड़ा जाता है, तब उसके ऊपरी रबर-कोट को दर कर जोड़ने पर ही विद्युत शक्ति प्रवाहित होती है, उसी प्रकार देह रूप रबर को दूर या विस्मृत किये बिना हमें आत्मशक्ति प्राप्त नहीं हो सकती है। आत्मा या परमात्मा से संपर्क करने के लिये स्थूल तार की आवश्यकता नहीं होती, समता का अदृश्य तार हो इसके लिये आवश्यक है। ऊंच-नीच की भावना योग प्रक्रिया के विरुद्ध है। राजयोग की प्रक्रिया राजयोग में मन को एकाग्र कर परमात्मा को ओर अभिमुख किया जाता है। इसमें यह माना जाता है कि यह संसार परमपिता परमात्मा ने बनाया है, वह अणु ज्योतिर्मय विन्दु रूप है, ब्रह्मलोकवासी है। उसी का मनन और प्रणिधान करने से आनन्द की प्राप्ति होती है। इसके लिये प्रारम्भिक अभ्यास के रूप में यह निश्चित रूप से स्वीकार करना होता है कि हमारा शरीर और आत्मा भिन्न-भिन्न है। शरीर की ओर अनासक्तता तथा आत्मा भिमुखता या ज्मोतिविन्दु आत्माभिमुखता का अभ्यास ही राजयोग है। ग्रोगाभ्यास के लिये संकल्प शक्ति या दृढ़ इच्छाशक्ति अनिवार्य है। इसके बिना चित्तवृत्तियों का निरोध और अन्तर्मुखता नहीं आ सकती। सर्वप्रथम निम्न छह बातों का निश्चय और मनन योगाभ्यास के लिये परम आवश्यक है: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212205
Book TitleSukh Shanti ki Prapti ka Upay Sahaj Rajyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunita Bramhakumari
PublisherZ_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf
Publication Year1989
Total Pages5
LanguageHindi
ClassificationArticle & Yoga
File Size564 KB
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