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२८४ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ ज्ञान ज्ञानी से भिन्न नहीं, अभिन्न है
प्रायः सभी आस्तिक दर्शन किसी न किसी रूप में ज्ञान की महत्ता को निःसंकोच स्वीकार करते हैं। परन्तु ज्ञान के मूल मेद और अवान्तर भेद कितने हैं ? इन्द्रियजन्य ज्ञान और अनिन्द्रियजन्य ज्ञान कौनसा है ? कौनसा ज्ञान किन-किन विषयों का साक्षात्कार कराता है? ब्रह्म (केवल) ज्ञान की क्या परिभाषा, क्या विशेषता है ? यह कब और किन को होता है ? उक्त प्रश्नों का उचित समाधान विश्व के समस्त दर्शनों की अपेक्षा केवल जनदर्शन ही प्रस्तुत करने में सक्षम है।
भगवान महावीर ने कहा है-जो ज्ञाता है, वह आत्मा है और जो आत्मा है वह ज्ञाता है। ज्ञान आत्मा का स्वाभाविक गुण है । दृश्यमान और अदृश्यमान संसार उसका ज्ञेय विषय है। ज्ञान और ज्ञय दोनों ज्ञानी से कभी दूर नहीं होते हैं। कदाच ज्ञेय दूर होने पर भी ज्ञानी आत्मा उसे जान लेती है; क्योंकि आत्मा ज्ञाता और द्रष्टा है। भले आत्मा धनीभूत कर्मावरण से आवृत हो या फिर निगोद जैसी निम्न स्तरीय योनि में पहुंच गई हो तथापि आत्मा का उपयोग (चेतना) गुण न पूर्ण रूप से नष्ट होता है और न पूर्णरूपेण आवृत ही। जिस प्रकार भले कितने भी सघन बादल आकाश मण्डल में छा जाये, फिर भी सूर्य के प्रकाश का दिवस सूचक आलोक बिल्कुल विलुप्त न होकर स्वल्पांश में भी खुला रहता है। इसी प्रकार आत्मा का विशिष्ट ज्ञान गुण कभी भी आत्मा से विलग नहीं होता है। यदि ऐसा मान लिया जाय तो फिर जीव जड़त्व गुण में परिणत हो जायगा। सभी शाश्वत द्रव्य अपने-अपने स्वभाव गुण से भ्रष्ट हो जायेगे । संसार में शाश्वत धर्म वाला कोई द्रव्य नहीं रहेगा; परन्तु ऐसा कभी हुआ नहीं है। यह ध्रव सिद्धान्त है कि-द्रव्याथिक नय की अपेक्षा सभी द्रव्य नित्य और शाश्वत हैं। पर्यायाथिक नय की अपेक्षा सभी द्रव्य अनित्य और अशाश्वत माने हैं। अनादिकाल से सभी द्रव्य इसी क्रमानुसार अपने-अपने गुण पर्यायों में परिणमन करते रहते हैं । - ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य और उपयोग ये जीवात्मा के लक्षण हैं। ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग की दृष्टि से उपयोग दो प्रकार का माना है। अर्हन्त दर्शन में ज्ञानोपयोग के पांच भेद इस प्रकार बताये हैं
मतिज्ञान श्रुतज्ञान अवधिज्ञान मनःपर्यवज्ञान केवलज्ञान ।
१ जे विनाय से आया, जे आया से विन्नाया
-आचारांग सूत्र १३५६ २ (a) There is Power of Knowledge in my self. (b) I know every thing by my power of knowledge.
- Jainism for Children ३ (क) नाणं च सणं चेव, चरित्तं च तवो तहा। बीरियं उवओगो य, एयं जीवस्स लक्षणं ।।
-उत्तरा०२८।११ (ख) उपयोगो लक्षणम् (उपयोगक्त्वं जीवस्स लक्षणम्)
-तत्वार्थ सूत्र २१८ ४ (क) नाणं पंचविह पन्नतं तं जहा-आभिणिबोहियनाणं, सुयनाणं, ओहिनाणं, मनपज्जवनाणं, केवलनाणं ।
-नंदी सूत्र (ख) तत्थ पंचविहं नाणं, सुयं आभनिबोहियं । . ओहिनाणं तु तइयं, मणनाणं च केवलं ॥
-उत्तरा० २८.४
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