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४ : सरस्वती-धरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ
प्रवृत्त होते हैं। समयसार गाथा १७५ में बतलाया गया है कि अभव्य जीव भी भव्य जीवके समान मोक्षके मार्गभूत धर्म (व्यवहारधर्म) में आस्था रखता है, उसको समझता है, उसमें रुचि रखता है और उसमें प्रवृत्त भी होता है । इतनी बात अवश्य है कि उसका वह धर्माचरण मुक्तिका कारण न होकर यथायोग्य सांसारिक सुखकी वृद्धिका ही कारण होता है ।
____ तात्पर्य यह है कि भव्य और अभव्य दोनों ही प्रकारके जीव मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी कषायके प्रभाव में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें रहते हुए भी यथायोग्य चतुर्थ गुणस्थानवर्ती, पंचम गुणस्थानवर्ती और षष्ठ गुणस्थानवी जीवोंके समान धर्माचरण करते हैं । और इस प्रकार धर्माचरण करते हुए अभव्य जीव भी भव्य जीवोंके समान अपने में क्षयोपशम, विशुद्धि देशना और प्रायोग्य लब्धियोंका विकास कर लेते हैं जिनके प्रभावसे वे नवम वेयिक तक स्वर्गमें भी उत्पन्न हो जाते हैं, परन्तु वे भव्य जीवोंके समान आत्मविशद्धिको सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्ररूप नहीं बना सकते है, क्योंकि जैनशासनमें बतलाया गया है कि उसी जीवकी आत्मविशद्धि सम्यग्दर्शनरूप होती है जिसने दर्शनमोहनीयकर्मकी तीन और अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभरूप चार इन सात प्रकृतियोंका उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम किया हो। इसी प्रकार आत्माकी विशुद्धि देशव्रतरूप उसी जीव की होती है जिसने उक्त दर्शनमोहनीयकर्मकी तीन और अनन्तानुबन्धी कषायकी चार इन सात प्रकृतियोंके उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशमके साथ अप्रत्याख्यानावरण कषायकी चार प्रकृतियोंका क्षयोपशम किया हो, तथा आत्माकी विशुद्धि सर्वव्रतरूप उसी जीवकी होती है, जिसने उक्त दर्शनमोहनीय कर्मकी तीन, अनन्तानुबन्धी कषायकी चार इन सात प्रकृतियोंके उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम और अप्रत्याख्यानावरण कषायके क्षयोपशमके साथ प्रत्याख्यानावरण कषायका क्षयोपशम किया हो ।
इसका भाव यह है कि मिथ्यात्वगुणस्थानमें मोहनीयकर्मको उक्त प्रकृतियोंका यथासम्भव उपशम, क्षय व क्षयोपशम उसी जीवमें होता है, जो भव्य हो । तथा, उस जीवमें वह उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम तभी होता है, जब वह सातिशय मिथ्यादृष्टि हो जाता है। वह सातिशय मिथ्यादृष्टि तभी कहा जाता है जब वह करणलब्धिको प्राप्त करता है अर्थात् क्रमशः अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण परिणामोंको प्राप्त होकर मोहनीयकर्मकी उक्त प्रकृतियोंका यथायोग्य उपशम, क्षय और क्षयोपशम करनेकी क्षमता प्राप्त कर लेता है । उसे करणलब्धिकी प्राप्ति तभी होती है जब वह समयसारमें प्रातिपादित भेदविज्ञानको प्राप्त कर लेता है। वह उक्त भेदविज्ञानको तब प्राप्त होता है जब वह क्षयोपशम, विशद्धि, देशना और प्रायोग्य इन चार लब्धियों को प्राप्त कर लेता है। वह इन चार लब्धियोंको तब प्राप्त करता है, जब वह नैतिक आचरणके रूपमें अथवा नैतिक आचरणके साथ देशवतके रूपमें अथवा नैतिक आचरणके साथ सर्वव्रतके रूपमें मन, वचन और कायके समन्वयपूर्वक आगममें वर्णित व्यवहारधर्मको अंगीकार करता है।
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि अभव्य जीव भी उक्त प्रकारके व्यवहारधर्मको अंगीकार करके क्षयोपशम, विशुद्ध, वेदना और प्रायोग्य इन लब्धियोंको प्राप्त कर लेता है, परन्तु वह अपनी अभव्यताके कारण उक्त भेदविज्ञानको प्राप्त नहीं होता है । समयसार गाथा १७५ का यही अभिप्राय है।
यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि उन भव्य और अभव्य जीवोंको उक्त चार लब्धियोंकी प्राप्ति नहीं होती है जो उक्त प्रकारके व्यवहारधर्मोको अंगीकार तो करते हैं, परन्तु मन, वचन और कायके समन्वयपूर्वक नहीं अंगीकार करते हैं।
इस विवेचनसे निर्णीत होता है कि मिथ्यादृष्टिगुणस्थानवी भव्य जीवको ही उपर्युक्त क्रमसे भेदविज्ञानकी प्राप्ति होती है, अभव्य जीवोंका नहीं।
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