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________________ 672 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ प्रकार हरिभद्र ने अन्य परम्पराओं के प्रति जिस शिष्टता और आदरभाव हैं। वे लिखते हैं कि “सत्य न्याय की दृष्टि से प्रकृति कर्म-प्रकृति ही का परिचय दिया है, वह हमें जैन और जैनेतर किसी भी परम्परा के अन्य है और इस रूप में प्रकृतिवाद भी उचित है क्योंकि उसके वक्ता कपिल ग्रन्थों में उपलब्ध नहीं होती। ___ दिव्य-पुरुष और महामुनि हैं / 16 हरिभद्र ने अन्य दर्शनों के अध्ययन के पश्चात् उनमें निहित 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' में हरिभद्र ने बौद्धों के क्षणिकवाद, सारतत्त्व या सत्य को समझने का जो प्रयास किया, वह भी अत्यन्त ही विज्ञानवाद और शून्यवाद की भी समीक्षा की है किन्तु वे इन धारणाओं महत्त्वपूर्ण है और उनके उदारचेता व्यक्तित्व को उजागर करता है। में निहित सत्य को भी देखने का प्रयत्न करते हैं और कहते हैं कि यद्यपि हरिभद्र चार्वाक दर्शन की समीक्षा करते हुए उसके भूत स्वभाववाद महामुनि और अर्हत् बुद्ध उद्देश्यहीन होकर किसी सिद्धान्त का उपदेश नहीं का खण्डन करते हैं और उसके स्थान पर कर्मवाद की स्थापना करते करते / उन्होंने क्षणिकवाद का उपेदश पदार्थ के प्रति हमारी आसक्ति के हैं / किन्तु सिद्धान्त में कर्म के जो दो रूप-द्रव्यकर्म और भावकर्म माने निवारण के लिये ही दिया है क्योंकि जब वस्तु का अनित्य और विनाशशील गए हैं उसमें एक ओर भावकर्म के स्थान को स्वीकार नहीं करने के स्वरूप समझ में आ जाता है तो उसके प्रति आसक्ति गहरी नहीं होती। इसी कारण जहाँ वे चार्वाक दर्शन की समीक्षा करते हैं, वहीं दूसरी ओर वे प्रकार विज्ञानवाद का उपदेश भी बाह्य पदार्थों के प्रति तृष्णा को समाप्त द्रव्यकर्म की अवधारणा को स्वीकार करते हुए चार्वाक के भूत स्वभाववाद करने के लिए ही है / यदि सब कुछ चित्त के विकल्प हैं और बाह्य रूप की सार्थकता को भी स्वीकार करते हैं और कहते हैं कि भौतिक तत्त्वों सत्य नहीं है तो उनके प्रति तृष्णा उत्पन्न ही नहीं होगी। इसी प्रकार कुछ का प्रभाव भी चैतन्य पर पड़ता है / 11 प० सुखलालजी संघवी लिखते साधकों की मनोभूमिका को ध्यान में रखकर संसार की निस्सारता का बोध हैं कि हरिभद्र ने दोनों पक्षों अर्थात् बौद्ध एवं मीमांसकों के अनुसार कराने के लिए शून्यवाद का उपदेश दिया है। इस प्रकार हरिभद्र की दृष्टि कर्मवाद के प्रसंग में चित्तवासना की प्रमुखता को तथा चार्वाकों के में बौद्ध दर्शन के क्षणिकवाद, विज्ञानवाद और शून्यवाद-इन तीनों सिद्धान्तों अनुसार भौतिक तत्त्व की प्रमुखता को एक-एक पक्ष के रूप में का मूल उद्देश्य यही है कि व्यक्ति की जगत् के प्रति उत्पन्न होने वाली तृष्णा परस्परपूरक एवं सत्य मानकर कहा कि जैन कर्मवाद में चार्वाक और का प्रहाण हो। मीमांसक तथा बौद्धों के मन्तव्यों का समेल हुआ है / 12 / अद्वैतवाद की समीक्षा करते हुए हरिभद्र स्पष्ट रूप से यह इसी प्रकार 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' में हरिभद्र यद्यपि न्याय- बताते हैं कि सामान्य की दृष्टि से तो अद्वैत की अवधारणा भी सत्य वैशेषिक दर्शनों द्वारा मान्य ईश्वरवाद एवं जगत-कर्तृत्ववाद की अवधारणओं है। इसके साथ ही साथ वे यह भी बताते हैं कि विषमता के निवारण की समीक्षा करते हैं, किन्तु जहाँ चार्वाकों, बौद्धों और अन्य जैन आचार्यों के लिए और समभाव की स्थापना के लिए अद्वैत की भूमिका भी ने इन अवधारणाओं का खण्डन किया है, वहाँ हरिभद्र इनकी भी आवश्यक है।८ अद्वैत परायेपन की भावना का निषेध करता है, इस सार्थकता को स्वीकार करते हैं / हरिभद्र ने ईश्वरवाद की अवधारणा में प्रकार द्वेष का उपशमन करता है / अत: वह भी असत्य नहीं कहा भी कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्यों को देखने का प्रयास किया है। प्रथम तो यह जा सकता / इसी प्रकार अद्वैत वेदान्त के ज्ञान मार्ग को भी वे कि मनुष्य में कष्ट के समय स्वाभाविक रूप से किसी ऐसी शक्ति के प्रति समीचीन ही स्वीकार करते हैं / 19 श्रद्धा और प्रपत्ति की भावना होती है जिसके द्वारा वह अपने में उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि अन्य दार्शनिक आत्मविश्वास जागृत कर सके / पं० सुखलालजी संघवी लिखते हैं कि अवधारणाओं की समीक्षा का उनका प्रयत्न समीक्षा के लिये न होकर उन मानव मन की प्रपत्ति या शरणागति की यह भावना मूल में असत्य तो दार्शनिक परम्पराओं की सत्यता के मूल्यांकन के लिये ही है। स्वयं नहीं कही जा सकती / उनकी इस अपेक्षा को ठेस न पहुँचे तथा तर्क उन्होंने 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' के प्राक्कथन में यह स्पष्ट किया है कि व बुद्धिवाद के साथ ईश्वरवादी अवधारणा का समन्वय भी हो, इसलिए प्रस्तुत ग्रन्थ का उद्देश्य अन्य परम्पराओं के प्रति द्वेष का उपशमन करना उन्होंने (हरिभद्र ने) ईश्वर-कर्तृत्ववाद की अवधारणा को अपने ढंग से और सत्य का बोध करना है / उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है / 13 हरिभद्र कहते हैं कि जो व्यक्ति उन्होंने ईमानदारी से प्रत्येक दार्शनिक मान्यता के मूलभूत उद्देश्यों को आध्यात्मिक निर्मलता के फलस्वरूप अपने विकास की उच्चतम भूमिका समझाने का प्रयास किया है और इस प्रकार वे आलोचक के स्थान पर को प्राप्त हुआ हो वह असाधारण आत्मा है और वही ईश्वर या सिद्ध पुरुष सत्य के गवेषक ही अधिक प्रतीत होते हैं। है / उस आदर्श स्वरूप को प्राप्त करने के कारण कर्ता तथा भक्ति का विषय होने के कारण उपास्य है। इसके साथ ही हरिभद्र यह भी मानते अन्य दर्शनों के गम्भीर अध्येता एवं निष्पक्ष व्याख्याकार हैं कि प्रत्येक जीव तत्त्वत: अपने शुद्ध रूप में परमात्मा और अपने भारतीय दार्शनिकों में अपने से इतर परम्पराओं के गम्भीर भविष्य का निर्माता है और इस दृष्टि से यदि विचार करें तो वह 'ईश्वर' अध्ययन की प्रवृत्ति प्रारम्भ में हमें दृष्टिगत नहीं होती है / बादरायण, भी है और 'कर्ता भी है / इस प्रकार ईश्वर-कर्तृत्ववाद भी समीचीन ही जैमिनि आदि दिग्गज विद्वान् भी जब दर्शनों की समालोचना करते हैं तो सिद्ध होता है / 5 हरिभद्र सांख्यों के प्रकृतिवाद की भी समीक्षा करते हैं, ऐसा लगता है कि वे दूसरे दर्शनों को अपने सतही ज्ञान के आधार पर किन्तु वे प्रकृति को जैन परम्परा में स्वीकृत कर्मप्रकृति के रूप में देखते भ्रान्तरूप में प्रस्तुत करके उनका खण्डन कर देते हैं / यह सत्य है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212138
Book TitleSamdarshi Haribhadrasuri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
Publication Year1998
Total Pages9
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size3 MB
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