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________________ समदर्शी आचार्य हरिभद्र 685 चित्रण है जिसकी चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं। संस्कृत भाषा में निबद्ध की थी। यद्यपि अनेक ग्रन्थों में इसका उल्लेख धर्मबिन्दुप्रकरण मिलता है, परन्तु इसकी आज तक कोई प्रति उपलब्ध नहीं हुई है / नाम 542 सूत्रों में निबद्ध यह ग्रन्थ चार अध्यायों में विभक्त है। इसमें साम्य के कारण अनेक बार हरिभद्रकृत इस प्राकृत कृति (सावयपण्णत्ति) श्रावक और श्रमण-धर्म की विवेचना की गयी है / श्रावक बनने के पूर्व को तत्त्वार्थसूत्र के रचयिता उमास्वाति की रचना मान लिया जाता है, जीवन को पवित्र और निर्मल बनाने वाले पूर्व मार्गानुसारी के पैंतीस गुणों किन्तु यह एक भ्रान्ति ही है / पञ्चाशक की अभयदेवसूरि कृत वृत्ति की विवेचना की गयी है / इस पर मुनिचन्द्रसूरि ने टीका लिखी है। में और लावण्यसूरि कृत द्रव्य सप्तति में इसे हरिभद्र की कृति माना गया है। इस कृति में सावग (श्रावक) शब्द का अर्थ, सम्यक्त्व का स्वरूप उपदेशपद नवतत्त्व, अष्टकर्म, श्रावक के 12 व्रत और श्रावक समाचारी का __इस ग्रन्थ में कुल 1040 गाथाएँ हैं / इस पर मुनिचन्द्रसूरि विवेचन उपलब्ध होता है। ने सुखबोधिनी टीका लिखी है। आचार्य ने धर्मकथानुयोग के माध्यम इस पर स्वयं आचार्य हरिभद्र की दिग्प्रदा नाम की स्वोपज्ञ से इस कृति में मन्द बुद्धि वालों के प्रबोध के लिए जैन धर्म के संस्कृत टीका भी है। इसमें अहिंसाणुव्रत और सामायिकव्रत की चर्चा उपदेशों को सरल लौकिक कथाओं के रूप में संगृहीत किया है। करते हुए आचार्य ने अनेक महत्त्वपूर्ण प्रश्नों का उत्तर दिया है / टीका मानव पर्याय की दुर्लभता एवं बुद्धि चमत्कार को प्रकट करने के में जीव की नित्यानित्यता आदि दार्शनिक विषयों की भी गम्भीर चर्चा लिये कई कथानकों का ग्रन्थन किया है / मनुष्य-जन्म की दुर्लभता उपलब्ध होती है। को चोल्लक, पाशक, धान्य, द्यूत, रत्न, स्वपन, चक्रयूप आदि जैन आचार सम्बन्धी ग्रन्थों में पञ्चवस्तुक तथा श्रावकप्रज्ञप्ति के दृष्टान्तों के द्वारा प्रतिपादित किया गया है। अतिरिक्त अष्टकप्रकरण, षोडशकप्रकरण, विंशिकाएँ और पञ्चाशकप्रकरण भी आचार्य हरिभद्र की महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं / पंचवस्तुक (पंचवत्युग) आचार्य हरिभद्र की यह कृति प्राकृत भाषा में निबद्ध है / इसमें अष्टकप्रकरण 1714 पद्य हैं जो निम्न पाँच अधिकारों में विभक्त हैं इस ग्रन्थ में 8-8 श्लोकों में रचित निम्नलिखित 32 1. प्रव्रज्याविधि के अन्तर्गत 228 पद्य हैं / इसमें दीक्षासम्बन्धी प्रकरण हैं - विधि-विधान दिये गए हैं। (1) महादेवाष्टक, (2) स्नानाष्टक, (3) पूजाष्टक, 2. नित्यक्रिया सम्बन्धी अधिकार में 381 पद्य हैं / यह (4) अग्निकारिकाष्टक, (5) त्रिविधभिक्षाष्टक, (6) सर्वसम्पमुनिजीवन के दैनन्दिन प्रत्ययों सम्बन्धी विधि-विधान की चर्चा करता है। करिभिक्षाष्टक,(७) प्रच्छन्नभोजाष्टक, (8) प्रत्याख्यानाष्टक, (9) ज्ञानाष्टक, 3. महाव्रतारोपण विधि के अन्तर्गत 321 पद्य हैं / इसमें बड़ी (10) वैराग्याष्टक (11) तपाष्टक, (12) वादाष्टक, (13) धर्मवादाष्टक, दीक्षा अर्थात् महाव्रतारोपण विधि का विवेचन हुआ है, साथ ही इसमें (14) एकान्तनित्यवादखण्डनाष्टक, (15) एकान्तक्षणिकवाद-खण्डनाष्टक, स्थविरकल्प, जिनकल्प और उनसे सम्बन्धित उपधि आदि के सम्बन्ध में (16) नित्यानित्यवादपक्षमंडनाष्टक, (17) मांसभक्षण-दूषणाष्टक, भी विचार किया गया है। (18) मांसभक्षणमतदूषणाष्टक (19) मद्यपानदूषणाष्टक (20) मैथुनदूषाणाष्टक, चतुर्थ अधिकार में 434 गाथाएँ है। इनमें आचार्य-पद स्थापना, (21) सूक्ष्मबुद्धिपरिक्षणाष्टक, (22) भावशुद्धिविचाराष्टक, गण-अनुज्ञा, शिष्यों के अध्ययन आदि सम्बन्धी विधि-विधानों की चर्चा (23) जिनमतमालिन्य निषेधाष्टक, (24) पुण्यानुबन्धिपुण्याष्टक, करते हुए पूजा-स्तवन आदि सम्बन्धी विधि-विधानों का निर्देश इसमें (25) पुण्यानुबन्धिपुण्यफलाष्टक, (26) तिर्थकृतदानाष्टक, मिलता हैं / पञ्चम अधिकार में सल्लेखना सम्बन्धी विधान दिये गए हैं। (27) दानशंकापरिहाराष्टक, (28) राज्यादिदानदोषपरिहाराष्टक, इसमें 350 गाथाएँ है। (29) सामायिकाष्टक, (30) केवलज्ञनाष्टक, (31) तीर्थंकरदेशनाष्टक, इस कृति की 550 श्लोक परिमाण शिष्यहिता नामक (32) मोक्षस्वरूपाष्टक / इन सभी अष्टकों में अपने नाम के अनुरूप स्वोपज्ञ टीका भी मिलती है / वस्तुतः यह ग्रन्थ विशेष रूप से जैन विषयों की चर्चा है। मुनि-आचार से सम्बन्धित है और इस विधा का यह एक आकर ग्रन्थ भी कहा जा सकता है। धूर्ताख्यान यह एक व्यंग्यप्रधान रचना है / इसमें वैदिक पुराणों में वर्णित श्रावकप्रज्ञप्ति (सावयपत्ति ) असम्भव और अविश्वसनीय बातों का प्रत्याख्यान पाँच धूर्तों की कथाओं 405 प्राकृत गाथाओं में निबद्ध यह रचना श्रावकाचार के के द्वारा किया गया है / लाक्षणिक शैली की यह अद्वितीय रचना है। सम्बन्ध में आचार्य हरिभद्र की एक महत्त्वपूर्ण कृति है। ऐसा माना जाता रामायण, महाभारत और पुराणों में पाई जाने वाली कथाओं की है कि इसके पूर्व आचार्य उमास्वाति ने भी इसी नाम की एक कृति अप्राकृतिक, अवैज्ञानिक, अबौद्धिक मान्यताओं तथा प्रवृत्तियों का कथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212138
Book TitleSamdarshi Haribhadrasuri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
Publication Year1998
Total Pages9
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size3 MB
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