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________________ समदर्शी आचार्य हरिभद्र 683 भी चर्चा की गई है। योगविंशिका में योग के निम्न पाँच भेदों का वर्णन योग का अधिकारी माना है / योग का प्रभाव, योग की भूमिका के है- (1) स्थान, (2) उर्ण, (3) अर्थ, (4) आलम्बन, (5) अनालम्बन। रूप में पूर्वसेवा,पाँच प्रकार के अनुष्ठान, सम्यक्तव-प्राप्ति का विवेचन, योग के इन पाँच भेदों का वर्णन इससे पूर्व किसी भी जैन-ग्रन्थ में नहीं विरति, मोक्ष, आत्मा का स्वरूप, कार्य की सिद्धि में समभाव, मिलता। अत: यह आचार्य की अपनी मौलिक कल्पना है / कृति के कालादि के पाँच कारणों का बलाबल, महेश्वरवादी एवं पुरुषाद्वैतवादी अन्त में इच्छा, प्रकृति, स्थिरता और सिद्धि -इन चार योगांगों और के मतों का निरसन आदि के साथ ही हरिभद्र ने 'गुरु' की विस्तार कृति, भक्ति, वचन और असङ्ग-इन चार अनुष्ठानों का भी वर्णन किया से व्याख्या की है। गया है / इसके अतिरिक्त इसमें चैत्यवन्दन की क्रिया का भी उल्लेख आध्यात्मिक विकास की पाँच भूमिकाओं में से प्रथम चार का पतञ्जलि के अनुसार सम्प्रज्ञात-असम्प्रज्ञात के रूप में निर्देश, सर्वदेव नमस्कार की उदारवृत्ति के विषय में ‘चारिसंजीवनी', न्याय गोपेन्द्रं और योगशतक कालातीतं के मन्तव्य और कालातीत की अनुपलब्ध कृति में से सात यह 101 प्राकृत गाथाओं में निबद्ध आचार्य हरिभद्र की योग अवतरण, आदि भी इस ग्रन्थ के मुख्य प्रतिपाद्य हैं / पुनः इसमें जीव सम्बन्धी रचना है / ग्रंथ के प्रारम्भ में निश्चय और व्यवहार दृष्टि से के भेदों के अन्तर्गत् अपुनर्बन्धक सम्यक दृष्टि या भिन्न ग्रंथी, देशविरति योग का स्वरूप प्रतिपादित किया गया है, उसके पश्चात् आध्यात्मिक और सर्व-विरति की चर्चा की गई है। योगाधिकार प्राप्ति के सन्दर्भ में विकास के उपायों की चर्चा की गई है / ग्रन्थ के उत्तरार्द्ध में चित्त पूर्वसेवा के रूप में विविध आचार-विचारों का निरूपण किया गया है। को स्थिर करने के लिये अपनी वृत्तियों के प्रति सजग होने या उनका अवलोकन करने की बात कही गई है / अन्त में योग से प्राप्त आध्यात्मिक विकास की चर्चा करते हुए अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता और वृत्ति-संक्षय- इन पाँच भेदों का निर्देश किया गया है। लब्धियों की चर्चा की गई है। साथ ही इनकी पतञ्जलि अनुमोदित सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात समाधि योगदृष्टिसमुच्चय से तुलना भी की गई है। इसमें विविध प्रकार के यौगिक अनुष्ठानों की योगदृष्टिसमुच्चय जैन योग की एक महत्त्वपूर्ण रचना है। भी चर्चा है जो इस बात को सूचित करते हैं कि साधक योग-साधना आचार्य हरिभद्र ने इसे 227 संस्कृत पद्यों में निबद्ध किया है / इसमें किस उद्देश्य से कर रहा है / यौगिक अनुष्ठान पाँच हैं- (1) विषानुष्ठान, सर्वप्रथम योग की तीन भूमिकाओं का निर्देश है: (1) दृष्टियोग, (2) गरानुष्ठान, (3) अनानुष्ठान, (4) तद्धेतु-अनुष्ठान, (5) अमृतानुष्ठान / (2) इच्छायोग और (3) सामर्थ्ययोग। इनमें पहले तीन 'असद् अनुष्ठान' हैं तथा अन्तिम के दो अनुष्ठान दृष्टियोग में सर्वप्रथम मित्रा, तारा, बला, दीपा, स्थिरा, कान्ता, 'सदनुष्ठान' है। प्रभा और परा- इन आठ दृष्टियों का विस्तृत वर्णन है। संसारी जीव की सद्योगचिन्तामणि' से प्रारम्भ होने वाली इस वृत्ति का श्लोक अचरमावर्तकालीन अवस्था को 'ओघ-दृष्टि' और चरमावर्तकालीन अवस्था परिणाम 3620 है / योगबिन्दु के स्पष्टीकरण के लिये यह वृत्ति को योग-दृष्टियों के प्रसंग में ही जैन-परम्परा सम्मत चौदह गुणस्थानों की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। भी योजना कर ली है / इसके पश्चात् उन्होंने इच्छायोग, शास्त्रयोग और सामर्थ्ययोग की चर्चा की है / ग्रन्थ के अन्त में उन्होंने योग अधिकारी के षड्दर्शनसमुच्चय रूप में गोत्रयोगी, कुलयोगी, प्रवृत्तचक्रयोगी और सिद्धयोगी- इन चार षड्दर्शनसमुच्चय आचार्य हरिभद्र की लोकविश्रुत दार्शनिक प्रकार के योगियों का वर्णन किया है। रचना है। मूल कृति मात्र 87 संस्कृत श्लोकों में निबद्ध है। इसमें आचार्य हरिभद्र ने इस ग्रन्थ पर 100 पद्य प्रमाण वृत्ति भी आचार्य हरिभद्र ने चार्वाक, बौद्ध, न्याय-वैशेषिक, सांख्य, जैन और लिखी है, जो 1175 श्लोक परिमाण है। जैमिनि (मीमांसा दर्शन) इन छ: दर्शनों के सिद्धान्तों का, उनकी मान्यता के अनुसार संक्षेप में विवेचन किया है / ज्ञातव्य है कि दर्शन-संग्राहक ग्रन्थों योगबिन्दु में यह एक ऐसी कृति है जो इन भिन्न-भिन्न दर्शनों का खण्डन-मण्डन हरिभद्रसूरि की यह कृति अनुष्टुप छन्द के 527 संस्कृत पद्यों से ऊपर उठकर अपने यथार्थ स्वरूप में प्रस्तुत करती है / इस कृति के में निबद्ध है। इस कृति में उन्होंने जैन योग के विस्तृत विवेचन के साथ- सन्दर्भ में विशेष विवेचन हम हरिभद्र के व्यक्तित्व की चर्चा करते समय साथ अन्य परम्परासम्मत योगों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक कर चुके हैं। विवेचन भी किया है / इसमें योग अधिकारियों की चर्चा करते हुए उनके दो प्रकार निरूपित किये गए हैं - (1) चरमावृतवृत्ति, (2) अचरमावृत- शास्त्रवार्तासमुच्चय आवृत वृत्ति / इसमें चरमावृतवृत्ति को ही मोक्ष का अधिकरी माना गया जहाँ षड्दर्शनसमुच्चय में विभिन्न दर्शनों का यथार्थ प्रस्तुतीकरण है / योग के अधिकारी-अनधिकारी का निर्देश करते समय मोह में है, वहाँ शास्त्रवार्तासमुच्चय में विविध भारतीय दर्शनों की समीक्षा आबद्ध संसारी जीबों को 'भवाभिनन्दी' कहा है और चारित्री जीवों को प्रस्तुत की गयी है / षड्दर्शनसमुच्चय की अपेक्षा यह एक विस्तृत कृति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212138
Book TitleSamdarshi Haribhadrasuri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
Publication Year1998
Total Pages9
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size3 MB
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