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________________ रूपेन्द्रकुमार पगारिया, न्यायतीर्थ सप्तभंगी ३४० (३) जैसे 'अस्तित्व' नामक गुण का घट द्रव्य आधार है वैसे ही अन्य अनन्त धर्मों का आधार भी वही घट द्रव्य है. अतः अर्थ की दृष्टि से अस्तित्व और अन्य गुणों में अभेदवृत्ति है (४) जैसे अस्तित्व नामक गुण का घट द्रव्य के साथ सम्बन्ध है वैसे ही अन्य गुणों का भी उसके साथ सम्बन्ध है, अतः सम्बन्ध की दृष्टि से भी अस्तित्व और अन्य गुणों में अभेदवृत्ति है. : (५) जैसे अस्तित्व नामक गुण पदार्थ के प्रति सत्ता के प्रदर्शन में और अपनी विशिष्टता के सम्पादन में सहायता करता है, वैसे ही अन्य गुण भी अस्तित्व की तरह अपनी अपनी क्रियारूप सहायता करते हैं और पदार्थ की विशिष्टता के सम्पादन में सहयोग प्रदान करते हैं. अतः गुणों की 'उपकार' वृत्ति समान होने से उपकारदृष्टि से भी अभेदवृत्ति पाई जाती है. (६) जैसे अस्तित्व नामक गुण घट द्रव्य के जिस क्षेत्र में रहता है उसी क्षेत्र में अन्य शेष धर्म भी रहते हैं. अतः अस्तित्व की तरह अन्य धर्म भी एक ही देश में रहने वाले होने से गुणिदेश की अपेक्षा से अभेदवृत्ति है. (७) जैसे – 'अस्तित्व' नामक गुण का घट द्रव्य के साथ संसर्ग है वैसा ही शेष अनन्त धर्मों का भी एक ही वस्तुत्व स्वरूप से उसी घट के साथ संसर्ग है. वह संसर्गदृष्टि से अभेदवृत्ति हुई. प्रश्न – संबंध और संसर्ग पर्यायवाची जैसे शब्द प्रतीत होते हैं, अतः इनमें परस्पर में क्या अन्तर है ? - उत्तर - जहाँ अभेदवृत्ति की प्रधानता हो और भेदवृत्ति की गौणता हो, वह 'सम्बन्ध' अभेदवृत्ति है और जहाँ भेदवृत्ति की प्रधानता और अभेदवृत्ति की गौणता हो वह संसर्ग अभेदवृत्ति है. अर्थात् भेद की गौणता और अभेद की प्रधानता 'संबंध' है. जबकि अभेद की गौणता और भेद की प्रधानता 'संसर्ग' है. (८) यह 'है' ऐसा शब्द जैसे अस्तित्व गुण वाले घट पदार्थ का वाचक है, वैसे ही शेष अनन्त गुणों वाले घट पदार्थ का वाचक भी यही है. इस प्रकार सभी गुणों की एक शब्द द्वारा वाचकता सिद्ध करने वाली 'शब्द' नामक अभेद वृत्ति है. द्रव्यार्थिक नय की गौणता और पर्यायार्थिक नय की प्रधानता होने पर इस प्रकार के गुणों की अभेदवृत्ति की संभावना नहीं होती, जैसे- (१) एक ही पदार्थ में परस्पर विरोधी अनेक गुणों की स्थिति एक साथ में होना असंभव है, क्योंकि प्रत्येक क्षण में वस्तु का परिवर्तन होता रहता है. वह कालकृत भिन्नता है. (२) नाना गुणों का स्वरूप परस्पर में भिन्न होता है. अतः आत्मरूप अभेदवृत्ति परस्पर की भिन्नता में नहीं पाई जाती है. (३) अपने आश्रय रूप अर्थ (पदार्थ) अनेक रूप होता हुआ पदार्थ रूप से सभी गुणों के लिए भिन्न-भिन्न रूपवाला ही है, क्योंकि परस्पर में विरोधी गुणों का एकत्र होना असंभव है. इस प्रकार अर्थ रूप से भिन्नता होती है. (४) संबंधी के भेद से संबन्ध का भी भेद देखा जाता है, अतः संबंध से भी अभेदवृत्ति नहीं दिखाई देती है. (५) अनेक गुणों द्वारा किए हुए वा क्रियमाण, उपकार भी अनेक हैं, अतः उपकार से भी प्रभेदवृत्ति नहीं दिखाई देती. (६) प्रत्येक गुण की अपेक्षा से गुणी के देश का भी भेद माना गया है. अतः गुणिदेश की अपेक्षा से भी भेदवृत्ति ही सिद्ध होती है. (७) संसर्ग की भिन्नता से संसर्गी में भी भिन्नता आ जाती है, अतः संसर्ग की दृष्टि से भी भेदवृत्ति सिद्ध होती है. (८) अर्थ के भेद होने से शब्द का भी भेद अनुभवसिद्ध है. यदि शब्दभेद नहीं मानोगे तो वाच्य का अर्थभेद कैसे प्रतीत होगा ? अतः शब्द से भी भेदवृत्ति सिद्ध होती है. इस प्रकार पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से कथंचित् भेद-रूप वर्णन होने Jain Education Internationel For Private & Personal Use Omy www.jainelibrary.org
SR No.212129
Book TitleSaptabhangi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendrakumar Pagariya
PublisherZ_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf
Publication Year1965
Total Pages8
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size965 KB
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