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३४४ : मुनि श्री हजारीमल स्मृति ग्रन्थ द्वितीय अध्याय
प्रश्न
-क्रम से योजित सत्त्व असत्त्व उभयरूप की अपेक्षा से सहयोजित सत्त्व असत्त्व इस उभयरूप का भेद कैसे सिद्ध हो सकता है ?
उत्तर- -क्रम से योजित कल्पना सहयोजित कल्पना से भिन्न ही है, क्योंकि पूर्व कल्पना में पदार्थ की पर्याएँ क्रम से कही जाती हैं, जबकि उत्तर कल्पना में युगपद् उन पर्यायों का कथन है. यदि भेद नहीं माना जायगा तो पुनरुक्ति दोष की संभावना रहेगी. क्योंकि एक वाक्य जन्य जो बोध है, उसी बोध के समान बोधजनक यदि उत्तर काल का वाक्य हो तो यही पुनरुक्ति दोष है. यहाँ पर क्रम से योजित तृतीय भंग है और अक्रम से योजित चतुर्थ भंग है. तृतीय भंग के द्वारा उत्पन्न ज्ञान- विकल्प, अस्तित्व के साथ नास्तित्व रूप स्थिति को बतलाता है. इस प्रकार से स्वयंसिद्ध है कि तृतीय और चतुर्थ भंग से उत्पन्न ज्ञानों में समान आकारता नहीं है, अतः दोनों भंग अलग-अलग ही हैं.
प्रश्न --- भंग सात ही नहीं किन्तु नौ होते हैं. जैसे तृतीय भंग में रहे हुये 'अस्तित्व नास्तित्व' के क्रम का परिवर्तन कर देने से 'नास्तित्व-अस्तित्व' रूप नया भंग बन जायगा. इसी प्रकार सातवें भंग में प्रदर्शित क्रम को भी पलट दिया जाय अर्थात् 'स्यादस्ति नास्ति च प्रवक्तव्यः' के स्थान में 'स्यान्नास्ति प्रस्ति च अवक्तव्य' वना दिया जाय तो एक और नया भंग बन जाता है. इस प्रकार भंगों की संख्या नौ हो जाएगी. नूतन बने हुए भंगों में तीसरे और सातवें भंग की पुनरा वृत्ति नहीं कही जा सकती है, क्योंकि अस्तित्वविशिष्ट नास्तित्व का बोध तृतीय भंग से होता है. जबकि नवीन भंग से नास्तित्वविशिष्ट अस्तित्व का बोध होता है विशेषण- विशेष्यभाव की विपरीतता हो गई है, जो विशेषण था वह विशेष्य बन गया है और जो विशेष्य था वह विशेषण बन गया है, यही बात सातवें भंग के संबंध में भी नूतन भंग के साथ समझना चाहिये. अर्थात् उसमें भी क्रम बदल गया है, विशेषण- विशेष्यभाव की विपरीतता आ गई है. अतः भंग सात नहीं किन्तु नव बनते हैं ?
उत्तर - उपरोक्त शंका में केवल समझ का ही फेर है. वह इस प्रकार है-तृतीय भंग में रहे हुए 'अस्तित्व और नास्तित्व' दोनों ही धर्म स्वतंत्र हैं. परस्पर सापेक्ष रूप से रहे हुए नहीं हैं. इसीलिये प्रधानता होने के कारण से ही पदार्थ में अक्क्तव्यता धर्म की उत्पत्ति होती है, तदनुसार विशेषण विशेष्य जैसी कोई स्थिति नहीं है. किन्तु पर्यायों में भूतकालीन भविष्यत्कालीन और वर्तमानकालीन दृष्टिकोण से ही अस्तित्व नास्तित्व और अवयव जैसे वाचक शब्दों की आवश्यकता पड़ती है. अवक्तव्यत्व रूप धर्म अस्ति नास्ति से विलक्षण पदार्थ है. सत्व मात्र ही वस्तु का स्वरूप नहीं है और केवल असत्त्व भी वस्तु का स्वरूप नहीं है. सत्त्व असत्त्व ये दोनों भी वस्तु का स्वरूप नहीं हैं, क्योंकि उभय से विलक्षण अन्य जातीय रूप से भी वस्तु का होना अनुभवसिद्ध है. जैसे दही, शक्कर, काली मिरच, इलायची, नागकेशर तथा लवंग के संयोग से एक नवीन जाति का पेय-रस तैयार हो जाता है, जो कि उपरोक्त प्रत्येक पदार्थ से स्वाद में और गुण में एवं स्वभाव में भिन्न ही बन जाता है. फिर भी सर्वथा भिन्न नहीं कहा जा सकता है और न सर्वथा अभिन्न भी कहा जा सकता है, एवं सर्वथा अवक्तव्य भी नहीं कहा जा सकता है. इस प्रकार सातों ही भंगों में परस्पर में विलक्षण अर्थ की स्थिति समझ लेना चाहिये. अतएव पृथक् पृथक् स्वभाव वाले सातों धर्मों की सिद्धि होने से उन-उन धर्मों के विषयभूत संशय, जिज्ञासा आदि क्रमों की श्रेणियाँ भी सात-सात प्रकार की होती हैं, इस प्रकार प्रत्येक धर्म के विषय में सात-सात भंग होते हैं.
सकलादेश और त्रिकलादेश - यह सप्तभंगी दो प्रकार की है-- एक प्रमाणसप्तभंगी और दूसरी नय-सप्तभंगी. प्रमाणवाक्य को सकलादेश वाक्य अर्थात् सम्पूर्णरूप से पदार्थों का ज्ञान कराने वाला वाक्य कहते हैं और नयवाक्य को विकलादेश अर्थात् एक अंश से पदार्थों का ज्ञान करानेवाला वाक्य कहते हैं.
प्रश्न- आपने प्रमाण और नय-सप्तभंगी के भी सात-सात भेद माने हैं किन्तु सात-सात भेद एक-एक के नहीं सिद्ध होते हैं क्योंकि प्रथम द्वितीय व चतुर्थ भंग वस्तु के एक धर्म को ही बताते हैं अतः ये तीन भंग नयवाक्य या विकलादेश रूप हैं और तृतीय, पंचम, षष्ठ और सप्तम भंग वस्तु के अनेक धर्मों का बोध करानेवाले होने से प्रमाणवाक्य या सकलादेश रूप हैं.
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