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________________ : ४६१ : सदाचार के शाश्वत मानदण्ड और जैनधर्म श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ में अधर्म (दराचार) कहे जाते हैं, वही किसी परिस्थिति विशेष में धर्म बन जाते हैं। वस्तुतः कभीकभी ऐसी परिस्थितियाँ निर्मित हो जाती हैं, जब सदाचार, दुराचार की कोटि में और दुराचार, सदाचार की कोटि में होता है। द्रौपदी का पांचों पांडवों के साथ जो पति-पत्नी का सम्बन्ध था फिर भी उसकी गणना सदाचारी सती स्त्रियों में की जाती है। जबकि वर्तमान समाज में इस प्रकार का आचरण दुराचार ही कहा जावेगा। किन्तु क्या इस आधार पर हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि सदाचार-दुराचार का कोई शाश्वत मानदण्ड नहीं हो सकता है। वस्तुतः सदाचार या दुराचार के किसी मानदण्ड का एकान्त रूप से निश्चय कर पाना कठिन है । जो बाहर नैतिक दिखाई देता है, वह भीतर से अनैतिक हो सकता है और जो बाहर से अनैतिक दिखाई देता है, वह भीतर से नैतिक हो सकता है । एक ओर तो व्यक्ति की आन्तरिक मनोवृत्तियाँ और दूसरी ओर जागतिक परिस्थितियां किसी कर्म की नैतिक मूल्यवत्ता को प्रभावित करती रहती हैं। अत: इस सम्बन्ध में कोई एकान्त नियम कार्य नहीं करता है। हमें उन सब पहलुओं पर भी ध्यान देना होता है जो कि किसी कर्म की नैतिक मूल्यवत्ता को प्रभावित कर सकते हैं । जैन विचारको सदाचार या नैतिकता के परिवर्तनशील और अपरिवर्तनशील अथवा सापेक्ष और निरपेक्ष दोनों पक्षों पर विचार किया है। सदाचार के मानदण्ड को परिवर्तनशीलता का प्रश्न वस्तुत: सदाचार के मानदण्डों में परिवर्तन देशिक और कालिक आवश्यकता के अनुरूप होता है । महाभारत में कहा गया है कि अन्ये कृतयुगें धर्मस्त्रेतायां द्वापरेऽपरे । अन्ये कलियुगे नृणां युग ह्रासानुरूपतः ॥ -शान्ति पर्व २५६८ युग के ह्रास के अनुरूप सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग के धर्म अलग-अलग होते हैं। यह परिस्थितियों के परिवर्तन से होने वाला मूल्य परिवर्तन एक प्रकार का सापेक्षिक परिवर्तन ही होगा । यह सही है कि मनुष्य को जिस विश्व में जीवन जीना होता है वह परिस्थिति निरपेक्ष नहीं है। देशिक एवं कालिक परिस्थितियों के परिवर्तन हमारी सदाचार सम्बन्धी धारणाओं को प्रभावित करते हैं । देशिक और कालिक परिवर्तन के कारण यह सम्भव है कि जो कर्म एक देश और काल में विहित हों, वही दूसरे देश और काल में अविहित हो जावें । अष्टक प्रकरण में कहा गया है उत्पद्यते ही साऽवस्था देशकालाभयान् प्रति । यस्यामकार्य कार्य स्यात् कर्म कार्य च वर्जयेत ॥ —अष्टक प्रकरण २७-५ टीका देशिक और कालिक स्थितियों के परिवर्तन से ऐसी अवस्था उत्पन्न हो जाती है, जिसमें कार्य अकार्य की कोटि में और अकार्य कार्य की कोटि में आ जाता है, किन्तु यह अवस्था सामान्य अवस्था नहीं, अपितु कोई विशिष्ट अवस्था होती है, जिसे हम आपवादिक अवस्था के रूप में जानते हैं, किन्तु आपवादिक स्थिति में होने वाला यह परिवर्तन सामान्य स्थिति में होने वाले मूल्य परिवर्तन से भिन्न स्वरूप का होता है। उसे वस्तुतः मूल्य परिवर्तन कहना भी कठिन है। इसमें जिन मूल्यों का परिवर्तन होता है, वे मुख्यतः साधन मूल्य होते हैं । क्योंकि साधन मूल्य आचरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212124
Book TitleSadachar ke Shashwat Mandand aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Jain_Divakar_Smruti_Granth_012021.pdf
Publication Year1979
Total Pages15
LanguageHindi
ClassificationArticle & Achar
File Size2 MB
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