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________________ श्री जैन दिदाकर-स्मृति-ग्रन्थ चिन्तन के विविध बिन्दु : ४६० : साधारणतया जैनधर्म सदाचार का शाश्वत मानदण्ड अहिंसा को स्वीकार करता है, किन्तु यहाँ हमें यह विचार करना होगा कि क्या केवल किसी को दुःख या पीड़ा नहीं देना या किसी की हत्या नहीं करना, मात्र यही अहिंसा है। यदि अहिंसा की मात्र इतनी ही व्याख्या है, तो फिर वह सदाचार और दुराचार का मानदण्ड नहीं बन सकती; यद्यपि जैन आचार्यों ने सदैव ही उसे सदाचार का एकमात्र आधार प्रस्तुत किया है। आचार्य अमृतचन्द्र ने कहा है कि अनृतवचन, स्तेय मैथन, परिग्रह आदि पापों के जो भिन्न-भिन्न नाम दिये गये वे तो केवल शिष्य-बोध के लिए हैं, मूलतः तो वे सब हिंसा ही है (पुरुषार्थ सिद्ध युपाय) । वस्तुतः जैन आचार्यों ने अहिंसा को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में विचारा है। वह आन्तरिक भी है और बाह्य भी। उसका सम्बन्ध व्यक्ति से भी है और समाज से भी। हिंसा को जैन-परम्परा में स्व की हिंसा और पर की हिंसा ऐसे दो भागों में बांटा गया है। जब वह हमारे स्व-स्वरूप या स्वभाव दशा का घात करती है तो स्व-हिंसा है और जब दूसरों के हितों को चोट पहुँचाती है, तो वह पर की हिंसा है । स्व की हिंसा के रूप में वह आन्तरिक पाप है, तो पर की हिंसा के रूप में वह सामाजिक पाप । किन्तु उसके ये दोनों रूप दुराचार की कोटि में ही आते हैं। अपने इस व्यापक अर्थ में हिंसा को दुराचार की और अहिंसा को सदाचार की कसौटी माना जा सकता है। सदाचार के शाश्वत मानदण्ड की समस्या यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या सदाचार का कोई शाश्वत मानदण्ड हो सकता है । वस्तुतः सदाचार और दुराचार के मानदण्ड का निश्चय कर लेना इतना सहज नहीं है । यह सम्भव है कि जो आचरण किसी परिस्थिति विशेष में सदाचार कहा जाता है, वही दूसरी परिस्थिति में दुराचार बन जाता है और जो सामान्यतया दुराचार कहे जाते हैं वे किसी परिस्थिति विशेष सदाचार हो जाते हैं। शील रक्षा हेतु की जाने वाली आत्महत्या सदाचार की कोटि में आ जाती है जबकि सामान्य स्थिति में वह अनैतिक (दुराचार) मानी जाती है। जैन आचार्यों का तो यह स्पष्ट उद्घोष है-'जे आसवा ते परिसवा, जे परिसवा ते आसवा' अर्थात् आचार के जो प्रारूप सामान्यतया बन्धन के कारण हैं, वे ही परिस्थिति विशेष में मुक्ति के साधन बन जाते हैं और इसी प्रकार सामान्य स्थिति में जो मुक्ति के साधन हैं, वे ही किसी परिस्थिति विशेष में बन्धन के कारण बन जाते हैं। प्रशमरति प्रकरण में उमास्वाति का कथन है देशं कालं- पुरुषमवस्थामुपघात, शुद्ध परिणामान् । प्रसमीक्ष्य भवति कल्प्यं नैकांतात्कल्प्यते कल्प्यम ।। अर्थात् एकान्त रूप से न तो कोई कर्म आचरणीय होता है और न एकान्त रूप से अनाचरणीय होता है, वस्तुतः किसी कर्म की आचरणीयता और अनाचरणीयता देश, काल, व्यक्ति, परिस्थिति और मनःस्थिति पर निर्भर होती है। महाभारत में भी इसी दृष्टिकोण का समर्थन किया गया है, उसमें लिखा है स एव धर्मः सोऽधर्मो देश काले प्रतिष्ठितः । आदानमन्तं हिंसा धर्मोह्यवस्थिकस्मृतः ॥ -महाभारत शान्तिपर्व ६३।११ अर्थात् जो किसी देश और काल में धर्म (सदाचार) कहा जाता है, वही किसी दूसरे देश और काल में अधर्म (दुराचार) बन जाता है और जो हिंसा, झूठ, चौर्यकर्म आदि सामान्य अवस्था Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212124
Book TitleSadachar ke Shashwat Mandand aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Jain_Divakar_Smruti_Granth_012021.pdf
Publication Year1979
Total Pages15
LanguageHindi
ClassificationArticle & Achar
File Size2 MB
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