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________________ ----0-0--0-0-0--0----0-0 ४६८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय के सामंजस्य से उद्भूत विचारों के एक ही धक्के से उनकी अर्द्ध सत्य मान्यताओं के प्रासाद भहराकर गिर पड़े. सामंजस्य ! हां, सत्य शिव सुन्दर का सामंजस्य अनिवार्य है. इसके अभाव में संसार में स्थित कोई भी अस्तित्व अपूर्ण है. वस्तु, कर्म और विचार सभी में तीनों के सामंजस्य से श्रेष्ठता आती है. सुन्दरम् क्या है ? झील के नीले जल में तट के वृक्षों की परछाइयां, परस्पर टकरा कर टूटती हुई लहरों में चमकती चांदनी, घाट पर पड़े हुए पत्थरों में समय का संगीत, दूर नीलाकाश से आता हुआ कोई अज्ञात आह्वान, भयंकर भूडोल में भी लय की अनुभूति, खुली धूप में स्वतन्त्रता और अंधकार में गुलामी का एहसास-यह सब क्या है ? आपके घर में एक गुलाब का पौधा है. उसके फूल और कलियों को देख-देख कर आप प्रसन्न होते हैं. एकान्त के उदास क्षणों में आपका ध्यान अनायास ही कुम्हलाई पंखुरियों पर जा पड़ता है और आप उस गुलाब के पौधे से आत्मीयता अनुभव करने लगते हैं. कांटा चुभता है तो जीवन के लिये शिक्षा ग्रहण करते हैं लेकिन जब आप अपने गमले में सूखते गुलाब के पौधे को बचाने के लिये सहानुभूति से प्रेरित होकर किसी वनस्पति-शास्त्री (Botanist) के पास जाते हैं तो आपकी सहानुभूति उसकी बातें सुनकर एक शुष्क ज्ञान में परिणत हो जाती है. घर लौट कर आप देखते हैं पौधा मर चुका है. उखाड़ कर फेंकते तनिक भी दुःख नहीं होता. नया पौधा लगा लेंगे. ऐसा क्यों होता है ? अनुसंधान का उद्देश्य प्रकृति में मनुष्य का प्रवेश है. पृथ्वी के आर-पार देख सकना, सितारों को छू लेना, पक्षियों और पशुओं की बोलियों को समझ लेना, समय की यति-गति को पहचान लेना, क्षण का अश्रुत संगीत सुन सकना और आकाश-पाताल को अपनी सहानुभूति में समेट कर एक सुन्दर स्नेहमय संसार की रचना, विज्ञान का उद्देश्य है. किन्तु आज विज्ञान उस पथ को भूल गया है. सत्य और शिव का निर्वाह तो वह जैसे तैसे कर लेता है किन्तु सौन्दर्य को अस्पृश्य मान कर छोड़ देता है. यहीं आकर वह भटक जाता है और नीरस कारण-परिणामों को सूचित करने वाली तालिका मात्र बन जाता है. यही कारण है कि सौन्दर्य के अभाव में सहानुभूति-शून्य होकर वह विध्वसंक होने लगता है. सौन्दर्य तो एक चेतना है जो स्वयं उद्भुत होती है. मनुष्य में, उसके रूप और आकृति में, और उसकी शक्ति के प्रयोगों में हम अपने व्यक्तिगत दृष्टिकोण द्वारा कहीं न कहीं एक ऐसी झलक पा लेते हैं जो हमें अभिभूत कर जाती है. यह चेतना न पुस्तकों से मिलती है न शिक्षकों से. इस चेतना के अभाव में मनुष्य जीवन का आनन्द खो देता है. आज समाज में व्यक्ति का मूल्यांकन कैसे होता है ? अच्छा पति या अच्छी पत्नी, आज्ञाकारी पुत्र या सुशीला पुत्री, अच्छा नागरिक, धनवान् व्यक्ति या सम्मानित महिला परन्तु यह मूल्यांकन सही नहीं है. यह तो ऊपरी वेश भूषा का मूल्यांकन है, मनुष्य का नहीं. मनुष्य का मूल्यांकन करने के लिये उसका आंतरिक सौन्दर्य देखना पड़ता है, उसकी आत्मा जाना पड़ता है, स्वयं अपने हृदय में सौंदर्य से सहानुभूति की भावना जागृत करनी होती है. सौदर्य से सहानुभूति रखने वाला मन संवेदनशील और भावुक होता है. सौन्दर्य के किसी भी रूप को देखकर उसकी हत्तंत्री पर स्पष्टकम्पन होते हैं. कम्पन, जड़ता, उल्लास, हर्षातिरेक, अधीरता, संवेदना आदि का उत्स सौन्दर्य ही है. अतः सत्य और शिव सौन्दर्य के विना फीके हैं. सौन्दर्य हमें अस्तित्त्व के उद्गम का चिन्तन करने के लिये प्रेरित करता है. प्रकृति के गोपन का उद्घोष सुन्दरम् के द्वारा होता है. सौन्दर्य को पाकर जीवन का असंतोष मिटता है. विश्रांति का अनुभव होता है किन्तु यह सन्तोष और विश्रान्ति, जीवन को निष्क्रिय नहीं बनाते, आगे बढ़ने का उल्लास और प्रेरणा प्रदान करते हैं. प्रेम का उद्भव भी सौन्दर्य से ही होता है. राल्फ वल्डो एमर्सन ने लिखा हैं : In the true mythology love is an immortal child and beauty leads him as guide nor can Jain Eduation Intemat Sor Private & Personal Use www.jainelibrary.org
SR No.212121
Book TitleSatyam Shivam Sundaram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamesh Upadhyay
PublisherZ_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf
Publication Year1965
Total Pages4
LanguageHindi
ClassificationArticle & Philosophy
File Size516 KB
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