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________________ आप आयेंगे। यदि कारण असत्य है तो कार्य सत्य कदापि सम्भव नहीं। कल्पना कीजिए--एक कुम्भकार मिट्टी के बर्तन बना रहा है। वे मिट्टी के बर्तन जिनके मूल में मिट्टी है, वे सोने-चांदी के नहीं बन सकते । जैसा कारण होगा, वैसा ही कार्य होगा। कारण-कार्य के नियमों में परिवर्तन नहीं हो सकता। जैन दार्शनिकों ने कहा--असत्य का मूल-कारण मिथ्यात्व है। मिथ्यादृष्टि के सत्य भाषण को व्यवहार की भाषा में सत्य कहा जा सकता है किन्तु वास्तविक दृष्टि से वह सत्य नहीं है, क्योंकि उसे सत्य-दृष्टि प्राप्त नहीं है। एक व्यक्ति जिसने मदिरा पी रखी हो और उस मदिरा के नशे में उन्मत्त बना हुआ हो। उस समय वह पिता को पिता, पुत्र को पुत्र, पत्नी को पत्नी और माता को माता कहता है और उनके साथ उसी प्रकार का व्यवहार भी करता है, स्थूल दृष्टि से वह सत्य प्रतीत होता है, तथापि वह अपने होश में नहीं है, उसका दिमाग दुरुस्त नहीं है । अत: वह दूसरे क्षण दूसरी बात भी कह सकता है । भाग्य के भरोसे जो कुछ भी मुंह से निकल जाये। पर वह स्वयं नहीं समझता है कि मैं क्या बोल रहा हूं? ऐसी ही स्थिति एक पागल व्यक्ति की भी होती है। वह एक क्षण में प्रेम से वार्तालाप करता है तो दूसरे क्षण खूख्बार भेड़िये के समान मारने के लिए भी लपक सकता है । उसके मुंह से निकली हुई सत्य बात भी प्रमाण रूप नहीं मानी जा सकती, क्योंकि उसमें विवेक और विचार का आलोक नहीं है। जिसकी दृष्टि में मिथ्यात्व की मलिनता है, अज्ञान का गहन अन्धकार है, उसका सत्य, सत्य नहीं है। सत्य वही होता है, जिसे विवेकदृष्टि प्राप्त हो चुकी है और जिसे सत्य-दृष्टि उपलब्ध हो जाती है, वह अनन्त, अपरिमित, और असीम सत्य के संदर्शन कर सकता है। सत्य-दृष्टि और सत्य सत्य और सत्य की दृष्टि में अन्तर है। जो सम्यग्दृष्टि साधक है, उसकी दृष्टि सम्यक् होती है जिसके कारण वह जो भी ग्रहण करता है, वह सत्य के लिए होता है। यदि सम्यग्दृष्टि भ्रान्तिवश असत्य का आचरण कर भी ले किन्तु ज्ञात होने पर वह अपनी भ्रान्ति और तज्जन्य आचरण को स्वीकारने में भी संकोच नहीं करता और उसी समय उस आचरण को छोड़ देता है । जब उसे यह परिज्ञात हो जाये कि उसका कथन सत्य नहीं है तो वह उसी क्षण सत्य को स्वीकार कर लेता है। आचार्य देववाचक ने स्पष्ट शब्दों में कहा है' — “यदि मिथ्यादृष्टि सम्यक्श्रुत को भी ग्रहण करेगा तो वह भी सम्यक्श्रुत उसके लिए मिथ्या में ही परिणत होगा और यदि सम्यग्दृष्टि मिथ्याश्रुत को ग्रहण करेगा तो वह भी उसके लिए सम्यग्श्रुत के रूप में परिणत होगा।" जैसे—गाय घास को भी दूध के रूप में परिणत करती है और सर्प दूध को भी जहर के रूप में परिणत कर देता है, वैसे ही जिसकी दृष्टि सम्यक् है उसके द्वारा जो भी ग्रहण किया जायेगा, वह सम्यक् ही होगा और मिथ्यादृष्टि द्वारा ग्रहण किया हुआ मिथ्या बनेगा । सम्यग्दृष्टि जहर को भी अमृत के रूप में परिणत कर देता है और मिथ्यादृष्टि अमृत को जहर के रूप में । यदि हमारा मन सत्य को ग्रहण करने में समर्थ नहीं है तो हम सत्य को ग्रहण नहीं कर सकते। यदि हमारे में सत्य-दृष्टि है तो हमें प्रत्येक परिस्थिति और वस्तु में सत्य के दर्शन हो सकते हैं। असत्य बोलने के कारण भगवान् महावीर ने असत्य भाषण के कारणों पर चिन्तन करते हुए कहा है—मुख्य रूप से असत्य चार कारणों से बोला जाता है—क्रोध से, लोभ से, भय से और हास्य से । जब मन में क्रोध की आंधी चल रही हो, लोभ का बवण्डर उठ रहा हो, भय का भूत मन पर हो, और हास्य का प्रसंग हो, उस समय मानव सहज ही असत्य-भाषण करता है, क्योंकि ये विकार जीवन की पवित्रता और मानव के विवेक को नष्ट कर देते हैं, जिससे उसकी वाणी और व्यवहार में असत्य प्रस्फुटित होता है। यदि मन में दया की स्रोतस्विनी प्रवाहित नहीं हो रही हो, अपितु प्रतिशोध की अग्नि भड़क रही हो, एक-दूसरे को हीन बताने का प्रयत्न चल रहा हो तो मनुष्य कर्कश भाषा का प्रयोग करता है। इस प्रकार की कर्कश, कठोर, प्राणियों को परिताप देने वाली, सपापकारी सत्य भाषा भी असत्य है; क्योंकि अन्तर्मानस में जो वैभाविक भावनाएं पनप रही हैं वे सत्यवाणी को भी असत्य में परिणत कर देती हैं। इसके विपरीत यदि मन में अहिंसा का आलोक जगमगा रहा हो, करुणा-दया की शीतल सरिता प्रवाहित हो, तो वाणी के द्वारा असावधानी से निकला हुआ असत्य भी सत्य है। जैन दार्शनिकों ने व्यक्ति की वाणी की अपेक्षा विचारों को और भाषा की अपेक्षा भावों को अधिक महत्त्व दिया है। १. 'कारणगुणपूर्वको हि कार्य गुणो दृष्टः।' २. 'एयाणि मिच्छादिट्ठिस्स मिच्छत्तपरिग्गहियाई मिच्छामयं । एआणि चेव सम्मदिट्ठिस्स सम्मतपरिग्गहियाई सम्मसुयं ।।', नन्दीसूत्र ३. 'सब्वं भंते ! मुसावायं पच्चक्खामि-से कोहा वा, लोहा वा, भया वा, हासा वा नेव सयं मुसं वएज्जा', दशवकालिक, ४/१२ जैन दर्शन मीमांसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212120
Book TitleSatya ki Sarvang Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherZ_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
Publication Year1987
Total Pages8
LanguageHindi
ClassificationArticle & Five Geat Vows
File Size2 MB
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