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________________ समिति' के स्थान पर आचार्य कुन्दकुन्द ने 'अमोह' भावना का उल्लेख किया है। पर चारित्रप्राभूत के टीकाकार ने अनुवीचिभाषण ही रखा है और अमोह का अर्थ अनुवीचिभाषणकुशलता किया है। आगम के टीकाकारों ने 'अनुवीचिभाषण' का अर्थ चिन्तनपूर्वक बोलना किया है, जबकि चारित्रप्राभूत की टीका में 'बीचि' का अर्थ 'वचन-लहर' तथा 'वचन-तरंग किया गया है। और उस वचन-तरंग का अनुसरण करके बोली जाने वाली भाषा को 'अनुवीचि' कहा गया है। दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है कि सूत्रों का अनुसरण करने वाली और पूर्वाचार्य व पूर्व परम्परा का अनुगमन करने वाली भाषा अनुवीचि' भाषा है। उसके पश्चात् प्रस्तुत भाषा के सम्बन्ध में भी चिन्तन चला। भटअकलंक ने दोनों ही अर्थों को स्वीकार किया है।' सारांश यह है कि प्रस्तुत भावना में भाषा व उसके गुण-दोषों पर चिन्तन करके सत्य के प्रति मन में दृढ़ता बनाये रखी जाती है। (2) क्रोध निग्रह रूप क्षमा भावना ___ यह द्वितीय भावना है। प्रथम भावना में चिन्तनपूर्वक विवेकयुक्त वचन बोलने का अभ्यास किया जाता है / निरन्तर अभ्यास करने से संस्कार सुदृढ़ हो जाते हैं। ___ असत्य भाषा के प्रयोग का प्रथम कारण क्रोध है। क्रोध का भूत जब मस्तिष्क पर सवार होता है तब विवेक लुप्त हो जाता है। वह दूसरों पर मिथ्या दोषों का आरोपण करने लगता है / उसे यह भान ही नहीं रहता कि मैं किसके सामने और क्या बोल रहा हूं। क्रोध अनेक दुर्गुणों की खिचड़ी है, इसीलिए प्रस्तुत भावना में क्रोध से बचकर क्षमा को धारण करने का संकल्प किया जाता है / मन को क्षमा से भावित करने का उपक्रम करना ही इस भावना का मूल उद्देश्य है। (3) लोभ विजय रूप निर्लोभ भावना क्रोध की तरह लोभ भी सत्य का संहार करने वाला है। क्रोध से द्वेष की प्रधानता होती है तो लोभ में राग की प्रधानता। सूर्य के चमचमाते हुए दिव्य प्रकाश को उमड़-घुमड़ कर आने वाली काली-कजराली घटाएं रोक देती है और अन्धकार मंडराने लगता है। वैसे ही लोभ की घटाओं से भी मानव का विवेक धुंधला हो जाता है, सत्य सूर्य का प्रकाश मन्द हो जाता है। लोभ के कारण मानव असत्य भाषण करता है। सत्य का साधक लोभ से बचने के लिए इस प्रकार चिन्तन करता है कि जिन पर-पदार्थों पर मैं मुग्ध हो रहा हूं, वे सभी वस्तुएं क्षणिक हैं / संसार के अपार कष्ट इन वस्तुओं के प्रति ममत्व एवं लोभ के फल ही हैं / अतः वह निर्लोभ-भावना का चिन्तन कर लोभ की वृत्ति को नष्ट करने में सतत प्रयत्नशील रहता है। (4) भयमुक्तियुक्त अभय भावना लोभ मीठा जहर है जो साधक के जीवन रस को चूस लेता है, उसे विषमिश्रित कर देता है तो भय कटुक जहर है जो साधक के जीवन को संत्रस्त कर देता है। भय का संचार होते ही व्यक्ति की बुद्धि कुंठित हो जाती है, वह करणीय तथा अकरणीय का यथातथ्य निर्णय नहीं कर पाता। स्थानांग में सात भय बताये हैं- (1) इहलोकभय (2) परलोकभय (3) आदानभय (4) अकस्मात्भय (5) वेदनाभय (6) मरणभय (7) अपयशभय / इन भयों के कारण मानव असत्य भाषण करता है। भयभीत व्यक्ति सत्य नहीं बोल पाता। इसलिए आगम साहित्य में साधक को यह स्पष्ट आदेश दिया है कि तुम्हें भयभीत नहीं होना चाहिए / भय के दुष्परिणामों पर चिन्तन कर अभय बनाने का प्रयास करना चाहिए। सुप्रसिद्ध विचारक इमर्सन ने लिखा है-भय अज्ञान से उत्पन्न होता है। साधक भयविमुक्ति के लिए अभय भावना से आत्मा को भावित कर सत्य के चिन्तन को सुदृढ़ करता है। 1. 'अकोहणो अलोहो य भय हस्स विवज्जिदो। ___ अणुवीचि भोसकुसलो विदियं वदमिस्सदो // ', चारित्रप्राभृत, गाथा 32 की टीका 2. 'वीचा वाग्लहरी तामनुकृत्य या भाषा वर्तते सानुवीची भाषा-जिनसूत्रानुसारिणीभाषा-अनुवीचीभाषा-पूर्वाचार्यसूत्रपरिपाटीमनुल्लंध्य भाषणीयमित्यर्थः / ', चारित्रप्राभृत, गाथा 32 की टीका 3. 'अनुबीचिभाषणं अनुलोमभाषणमित्यर्थ-विचार्यभाषणं अनुवीचिभाषणमिति वा / ', तत्त्वार्थराजवातिक, 7/5 4. स्थानांगसूत्र, स्थान 46 आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.212120
Book TitleSatya ki Sarvang Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni Shastri
PublisherZ_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
Publication Year1987
Total Pages8
LanguageHindi
ClassificationArticle & Five Geat Vows
File Size2 MB
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