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संथारा-संलेषणा : समाधिमरण की कला
किन्तु इतनी दुर्बलता में भी उनके चेहरे पर एक अद्भुत तेज और प्रकाश दमकता था, जैसे हवन की अग्नि अपने तेज से शोभित होती है, वैसे उनका शरीर तपस्तेज से अतीव -अतीव दीप्त/शोभित होता रहता था।
धन्ना अणगार इस प्रकार दीर्घकालीन तपस्या (संलेखना) करने के पश्चात् अपने शरीर को निःसत्व समझकर अन्तिम समय में संथारा करने के लिए भगवान की आज्ञा लेकर विपुलाचल पर्वत पर आरोहण करते हैं और वहाँ व्रतों की आलोयणा / प्रायश्चित्त आदि करके समस्त जीव राशि के साथ क्षमापना और परम मैत्री भावना करते हुए मासिक संलेखना (संथारा) पूर्वक उच्च शुद्ध शान्त भावों के साथ देह त्यागकर सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न होते हैं।
आगमों के इन वर्णनों से यह भी ध्वनित होता है कि जैन परम्परा में हजारों शताब्दियों पूर्व भी जीवन-मरण का यह आत्म-विज्ञान उपलब्ध था जिसके अनुसार हजारों हजार साधक संसार सरोवर में कमल की भाँति निर्लिप्त जीवन जीते हुए अन्तिम समय में धीरे-धीरे शरीर को तपस्या द्वारा कृश करते, मोह कषाय आदि वासनाओं को ध्यान द्वारा भस्मीभूत करते, परमसमाधि पूर्वक शरीर का त्याग करके सद्गति का वरण करते थे।
पूज्य श्री धर्मदासजी म. का संधारा
वर्तमान समय की चर्चा करने से पहले इतिहास प्रसिद्ध एक घटना का उल्लेख करना भी महत्वपूर्ण होगा।
स्थानकवासी सम्प्रदाय के आदि पुरुष पूज्य श्री धर्मदासजी महाराज एक महान् वैरागी और वज्र संकल्प के धनी संत थे। वि. सं. १७09 में सरखेज (अहमदाबाद) में आपका जन्म हुआ और वि. सं. १७२१ में संयम ग्रहण किया। आपके ९९ शिष्य हुए जिनमें २२ शिष्य बहुत विद्वान और प्रभावशाली थे, जिनके कारण आगे चलकर बाईस सम्प्रदाय प्रसिद्ध हुए।
एक बार धार में आपके एक शिष्य ने अपरिपक्व मनोदशा में संथारा ग्रहण कर लिया, कुछ दिन बाद उसकी मनःस्थिति डांवाडोल हो उठी। आचार्यश्री ने जब यह घटना सुनी तो बड़ा दुख हुआ। सोचा- “यदि साधु संथारे से उठ जायेगा तो जैन धर्म की बड़ी निन्दा होगी। जैन श्रमण के त्याग और नियम का ही तो महत्व है, स्वीकृत प्रतिज्ञा भंग होने से तो जैन मुनियों की गरिमा को चोट पहुँचेगी।”
आपश्री ने मन ही मन दृढ़ निश्चय किया और उग्र विहार कर धार पहुँचे, मुनि को समझाया- स्वीकृत प्रतिज्ञा से हटना उचित नहीं है। किन्तु जब वह मुनि स्थिर नहीं हो सका तो पूज्य श्री ने उसको वहाँ से उठाया और स्वयं को संथारे के लिए समर्पित कर दिया। स्वीकृत नियम और धर्म गरिमा की रक्षा के लिए उन्होंने प्राणों का मोह त्यागकर एक अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत किया। पूज्य धर्मदास
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जी म. का यह संथारा आज भी हजारों साधकों के लिए प्रेरणा का प्रकाश पुंज बना हुआ है।
आनन्दमय समाधिमरण की यह अविच्छिन्न परम्परा जैन परम्परा में आज भी प्रचलित है। श्वेताम्बर, दिगम्बर दोनों ही आम्नायों में आज भी संलेखना, समाधिमरण, संथारा का वही महत्व है। संलेखना जीवन की परम उपलब्धि है। प्रत्येक साधक की यह अन्तर अभिलाषा रहती है कि मैं जीवन के अन्तिम समय में संलेखना संथारा करके जीवन को कृतकृत्य करता हुआ, समाधिपूर्वक प्राण त्याग करूँ।
आज के युग में संधारा के कुछ विशिष्ट उदाहरण हमारे सामने हैं, जिनकी संक्षिप्त चर्चा यहाँ प्रासंगिक होगी।
तपस्वी जगजीवन मुनिजी का संथारा
सौराष्ट्र में जन्मे तपस्वी श्री जगजीवन जी म. स्थानकवासी जैन परम्परा के एक प्रभावशाली सन्त थे ।
वि. सं. १९४३ में दलखाणिया (सौराष्ट्र) में उनका जन्म हुआ। जीवन की प्रौढ़ अवस्था में अपना भरा पूरा समृद्ध परिवार धन वैभव, मान प्रतिष्ठा आदि का मोह त्याग कर बड़े वैराग्य भाव के साथ अपने एक पुत्र तथा दो पुत्रियों के साथ जैन दीक्षा ग्रहण की। गुजरात आदि प्रदेशों में विचरने के पश्चात् पूर्व भारत में विहार करने लगे। लगभग ८२ वर्ष की अवस्था में उन्हें शरीर की अशक्तता का अनुभव होने लगा। उनके मन में संकल्प उठा कि अब मैं भगवान महावीर की उपदेश भूमि राजगृह के उदयगिरि पर्वत पर जाकर संलेखना संथारा पूर्वक इस नश्वर शरीर का त्याग करूँ। उनके योग-शुद्ध अन्तःकरण में यह प्रतिभास होने लगा कि अब यह शरीर अधिक दिन टिकने वाला नहीं है। अतः मैं ध्यान, समाधि और समतापूर्वक संलेखना करते हुए इस शरीर को मृत्यु आने से पूर्व ही मृत्यु के लिए तैयार कर लूँ और एक समाधिपूर्ण सजग मृत्यु का वरण करूँ।
इस लक्ष्य के प्रति समर्पित होकर अत्यन्त दृढ़ मनोबल के साथ मुनिश्री जी ने उदयगिरि पर्वत की तलहटी में पहुँचकर तपस्या संलेखना का प्रारम्भ किया। संलेखना के प्रारम्भिक काल में शारीरिक दृष्टि से अशक्त तो थे, परन्तु विशेष अस्वस्थ नहीं थे। एक मास के निरन्तर उपवास से उनका शरीर सूखता चला गया। किन्तु वाणी में वही ओज था। चेहरे पर पहले से भी अधिक स्फूर्ति और चमक थी। इस संलेखना के क्रम में भारत के सुदूर अंचलों से हजारों श्रद्धालु मुनिजी के दर्शनार्थ आने लगे। बिहार के राज्यपाल, मुख्यमंत्री आदि अनेकानेक राजनेता, पत्रकार, साहित्यकारों का भी तपस्वी मुनिजी के दर्शनार्थ आने का ताँता लग गया। जापान के बौद्ध धर्म गुरु श्री फुजी गुरुजी भी अपनी शिष्य मण्डली सहित आये, और बौद्ध धर्म पद्धति के अनुसार मुनिजी की स्तुति वन्दना करते हुए बोले- "मैं ८४ वर्ष का हूँ, आपके पीछे-पीछे मैं भी आ