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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड
संलेखना मृत्यु पर विजय प्राप्त करने की कला सिखाती है। वह जीवन-शुद्धि और मरण-शुद्धि की एक प्रक्रिया है । जिस साधक ने मदन के मद को गलित कर दिया है, जो परिग्रह पंक से मुक्त हो चुका है, सदा सर्वदा आत्मचिन्तन में लीन रहता है वही व्यक्ति इस मार्ग को अपनाता है। संलेखना में सामान्य मनोबल वाला साधक, विशिष्ट मनोबल को प्राप्त करता है । उसकी मृत्यु असमाधि का नहीं समाधि का कारण है। एक सन्त कवि ने कहा है-जैसे कोई वधू डोले पर बैठकर ससुराल जा रही हो।' उसके मन में अपार आह्लाद होता है, वैसे ही साधक को भी परलोक जाते समय अपार प्रसन्नता होती है।
संलेखना और समाधिमरण ये दोनों पर्यायवाची शब्द हैं । आचार्य समन्तभद्र ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में प्रथम श्लोक में संलेखना का लक्षण बताया है, और द्वितीय श्लोक में समाधिमरण का। आचार्य शिवकोटि ने "संलेस्ना" और समाधिमरण को एक ही अर्थ में प्रयुक्त किया है। उमास्वाति ने श्रावक और श्रमण दोनों के लिए संलेखना का प्रतिपादन कर संलेखना और समाधिमरण का भेद मिटा दिया है। आचार्य कुन्दकुन्द समाधिमरण श्रमण के लिए मानते हैं और संलेखना गृहस्थ के लिए मानते हैं ।
आचार्य कुन्दकुन्द ने श्रावक के द्वादश व्रतों में जो चार शिक्षाव्रत हैं उनमें संलेखना को चौथा शिक्षाक्त माना है। आचार्य कुन्दकुन्द का अनुसरण करते हुए शिवार्यकोटि, आचार्य देवसेन, आचार्य जिनसेन, आचार्य वसुनन्दि आदि ने संलेखना को चतुर्थ शिक्षाव्रत में सम्मिलित किया है। किन्तु आचार्य उमास्वाति ने संलेखना को श्रावक के द्वादश व्रतों में • नहीं गिना है । उन्होंने संलेखना को अलग नियम व धर्म के रूप में प्रतिपादन किया है ।
___ आचार्य समन्तभद्र, पूज्यपाद, आचार्य अकलंक, विद्यानन्दी, आचार्य सोमदेव, अमितगति, स्वामि कार्तिकेय प्रभृति अनेक आचार्यों ने आचार्य उमास्वाति के कथन का समर्थन किया है । इन सभी आचार्यों ने एक स्वर से इस सत्य तथ्य को स्वीकार किया है कि शिक्षावत में संलेखना को नहीं गिनना चाहिए। क्योंकि शिक्षाव्रत में अभ्यास किया
जाता है । पर संलेखना मृत्यु का समय उपस्थित होने पर स्वीकार की जाती है, उस समय अभ्यास के लिए अवकाश ही कहाँ है, यदि द्वादश व्रतों में संलेखना को गिनेंगे तो फिर एकादश प्रतिमाओं को धारण करने का समय कहां रहेगा। इसलिए उमास्वाति का मन्तव्य उचित है । श्वेताम्बर जैन आगम साहित्य और आगमेतर साहित्य में कहीं पर भी संलेखना को द्वादश वतों में नहीं गिना है। इसलिए समाधिमरण श्रमग के लिए और संलेखना गृहस्थ के लिए है यह कथन युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि आगम साहित्य में अनेक श्रमण-श्रमणियों के द्वारा संलेखना ग्रहण करने के प्रमाण समुपलब्ध होते हैं। संलेखना की व्याख्या
आचार्य अभयदेव ने “स्थानांग वृत्ति"3 में संलेवता की परिभाषा करते हुए लिखा है-“जिस क्रिया के द्वारा शरीर एवं कषाय को दुर्बल और कृश किया जाता है वह संलेखना है।" "ज्ञातासूत्र" की वृत्ति में भी इसी अर्थ को स्वीकार किया है। "प्रवचनसारोदार" में "शास्त्र में प्रसिद्ध चरम अनशन की विधि को संलेखना कहा है।" निशीष
१.
"सजनि ! डोले पर हो जा सवार । लेने आ पहुंचे हैं कहार ।" "सामाइयं च पढम विदियं च तहेव पोसहं भणियं । तइयं अतिहिपुज्जं उत्थ सलेहणा अन्ते ॥
-चारित्रपाहुड, गाभा २६
संलिप्यतेऽनया शरीर कवायादि इति संलेबना"-स्थानांग २ उ. २ वृत्ति "कषायशरीरकृशतायाम्"। आगमोक्तविधिना शरीराधपकर्षणम् ---प्रवचनसारोद्धार १३५ ।
-जाता० बृत्ति
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