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कर्मयोगी भी केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड
रुग्ण व्यक्ति मर जाता है तो डाक्टर हत्यारा नहीं कहलाता। इसी तरह संथारा-संलेखना में होने वाली मृत्यु आत्महत्या नहीं हो सकती। शल्य चिकित्सा दैहिक जीवन की सुरक्षा के लिए है तो विनासंधारा आध्यात्मिक जीवन की सुरक्षा के लिए है।
कितने ही समालोचक जैन दर्शन पर आक्षेप लगाते हुए कहते हैं कि जैन दर्शन जीवन से इकरार नहीं करता वह जीवन से इन्कार करता है। पर उनकी यह समालोचना भ्रान्त है। जैन दर्शन जीवन के मिथ्या-मोह से इन्कार अवश्य करता है । उसका स्पष्ट मन्तव्य है कि यदि जीवन जीने में कोई विशिष्ट लाभ है, तुम्हारा जीवन स्व और पर हित की साधना के लिए उपयोगी है तो तुम्हारा कर्तव्य है कि सभी प्रकार से जीवन की सुरक्षा की जाय। श्रुतकेवली भद्रबाहु ने स्पष्ट शब्दों में साधक को कहा - "तुम्हारा शरीर न रहेगा तो तुम संयम की साधना, तपआराधना और मनोमंथन किस प्रकार कर सकोगे । संयम साधना के लिए तुम्हें देह की सुरक्षा का पूर्ण ध्यान रखना चाहिए उसका परिपालन आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है।
संयमी साधक के शरीर की समस्त क्रियाएँ संयम के लिए होती हैं। जिस शरीर से संयम की विराधना होती हो, मन में संक्लेश पैदा होता हो वह जीवन किस काम का जैन दर्शन के मूर्धन्य मनीषियों का यह स्पष्ट मन्तव्य रहा है वही जीवन आवश्यक है जिससे संयमी जीवन को शुद्धि होती हो, आध्यात्मिक गुणों की शुद्धि और वृद्धि होती हो, उस जीवन की सतत रक्षा करनी चाहिए जिस जीवन से संयमी जीवन धुंधला होता हो उस जीवन से मरना अच्छा है । इस दृष्टि से जैन दर्शन जीवन से इन्कार करता है । पर प्रकाश करते हुए, संयम की सौरभ फैलाते हुए जीवन से इन्कार नहीं करता ।
संलेखना व संथारे के द्वारा जो समाधिपूर्वक मरण होता है, उसमें और आत्महत्या में मौलिक अन्तर है। आत्महत्या वह व्यक्ति करता है जो परिस्थितियों से उत्पीड़ित है, उद्विग्न है, जिसकी मनोकामनाएँ पूर्ण नहीं हुई हैं। संघर्षों से ऊबकर जीवन से पलायन करना चाहता है । या किसी से अपमान होने पर, कलह होने पर, आवश्यकताओं की पूर्ति न करने पर, पारस्परिक मनोमालिन्य होने पर, किसी के द्वारा तीखे व्यंग्य कसने पर वह कुएं में कूदकर समुद्र में गिरकर, पेट्रोल और तेल छिड़क कर ट्रेन के नीचे आकर, विष का प्रयोग कर फाँसी आदि लगाकर या किसी शस्त्र से अपना जीवन समाप्त करना चाहता है। आत्महत्या में वीरता नहीं किन्तु कायरता है । जीवन से भागने का प्रयास है । आत्महत्या के मूल में भय और कामनाएँ रही हुई हैं। उसमें कषाय और वासना की तीव्रता है। उत्तेजना है। पर समाधिमरण में संघर्षो से साधक भयभीत नहीं होता। जब उसके मन में कषाय, बासना और इच्छाएं नहीं होती। जब साधक के सामने एक ओर देह और दूसरी ओर संयम रक्षा इन दो में से एक को चुनने का प्रश्न आता है तो साधक उस समय देह को नश्वर समझकर संयम की रक्षा के लिए संयम के पथ को अपनाता है। जीवन की सान्ध्यवेला में जब 1. मृत्यु सामने खड़ी हुई उसे दिखाई देती है, वह निर्भय होकर उस मृत्यु को स्वीकार करना चाहता है । उसकी स्वीकृति में उसे अपूर्व प्रसन्नता होती है। वह सोचता है-कर्म जाल में यह आत्मा अनन्त काल से फँसी हुई है। उस जाल को तोड़ने का मुझे अपूर्व अवसर मिला है। वह सर्वतन्त्र स्वतन्त्र होने के लिए अविनश्वर आनन्द को प्राप्त करने के लिए शरीर को त्यागता है । समाधिमरण में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र के द्वारा यह चिन्तन करता है कि कर्मबन्धन का मूल कारण मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व के कारण देह और आत्मा को एक मानता रहा हूँ। जैसे चना और चने का छिलका पृथक् हैं, वैसे ही आत्मा और देह पृथक् है । मिथ्यात्व से ही पर-पदार्थों में परिणति होती है। ज्ञान आत्मा का निज गुण है । मिथ्यात्व के कारण वह निजगुण प्रकट नहीं हो सका है। आत्मा अनन्तकाल से विश्व में जो परिभ्रमण कर रहा है, वह सही ज्ञान के अभाव में। जब ज्ञान का पूर्ण निखार होगा तब मुझे केवलज्ञान प्राप्त होगा। इस प्रकार वह सम्यग् --
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" संजमहेउ देहो धारिज्जई सो कभी उ तदभावे । संजम काइनिमित्त देह परिपालन। इछा "
ओ नियुक्ति, ४७.
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