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४१२ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज–अभिनन्दन ग्रन्थ
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कषाय शरीरकृशतायाम् ।२२ -कषाय एवं शरीर को कृश करने के अर्थ में 'संलेखना' शब्द का प्रयोग होता है ।
आगमोक्तविधिना शरीराद्यपकर्षणम् ।। 3 । -शास्त्र में बताई हुई विधि के अनुसार शरीर एवं कषाय आदि अन्तर वृत्तियों का आकर्षण क्षीण करना ।
आगमप्रसिद्ध चरमानशनविधि क्रियायाम् ।२४ -शास्त्रों में प्रसिद्ध चरम अनशन की विधि को 'संलेखना' के रूप में बताया गया है। उक्त परिभाषाओं से दो-तीन प्रश्न समाहित हो जाते हैं।
पिछले प्रकरण में पण्डित-मरण के तीन भेदों में प्रथम भेद 'भक्त प्रत्याख्यान' बताया गया है । भक्त प्रत्याख्यान के भी दो भेद हैं-यावत्कथिक और इत्वरिक । यावत्कथिक को मारणान्तिक अनशन भी कहते हैं । २५ इत्वरिक अनशन : एक निश्चित समय तक का होता है, जैसे-उपवास, बेला आदि से छह मासी तप तक । इस तप की अवधि पूर्ण होने पर आहार की इच्छा रहती है, इसलिए इसे 'सावकांक्ष' कहा गया है। इत्वरिक अनशन की प्रक्रिया जीवन में बार-बार अपनाई जाती है । अनेक प्रकार की तपोविधियाँ अपनाकर साधक कर्म-निर्जरा करता रहता है । यावत्कथिक तप को 'मारणांतिक तप' इसीलिए कहा गया है कि यह मरण पर्यन्त स्वीकार किया जाता है । इस तप को स्वीकार करने वाला आहार की इच्छा से सर्वथा मुक्त हो जाता है। भोजन पानी की किचिन्मात्र वासना भी उसके मन में नहीं रहती। वह साधक अध्यात्म भाव में इतना गहरा लीन हो जाता है कि आहार के अभाव में भी उसे किसी भी प्रकार की पीड़ा या संक्लेश नहीं होता । २६
संलेखना के साथ भी आगमों में प्रायः 'मारणांतिक' विशेषण जोड़ा गया है। 'मारणांतिय संलेहण' शब्द स्थान-स्थान पर प्रयुक्त होता है । इससे अन्य तपःकर्म से संलेखना का पार्थक्य और वैशिष्ट्य सूचित होता है । पार्थक्य तो यह है कि यह इत्वरिक तप के अन्तर्गत नहीं आता, इत्वरिक तप का कालमान छह मास तक का है, जबकि संलेखना का उत्कृष्ट काल मान बारह वर्ष का माना गया है। प्रवचन सारोद्धार में कहा है२७-"संलेहणा दुवालस वरिसे"संलेखना उत्कृष्ट रूप में बारह वर्ष की होती है। उसके तीन भेद भी बड़े मननीय है।
यावत्कथिक तप में भी संलेखना की गणना नहीं होनी चाहिए, क्योंकि यावत्कथिक का स्वरूप है--जीवनपर्यन्त आहार आदि की आकांक्षा से विरत हो जाना। संलेखना यद्यपि जीवन के अन्तिम समय में की जाती है, किन्तु मृत्युपर्यन्त आहार का त्याग इसमें नहीं होता। इस क्रिया में विविध प्रकार के तपःकर्म द्वारा शरीर को कृश किया जाता है । बीच-बीच में आहार भी लिया जाता है। हां, छहमास से लम्बा उपवास (अनशन) इसमें नहीं है, इसलिए स्वरूप विवक्षा करने पर इत्वरिक तप के अन्तर्गत इसका समावेश हो जाता है। साथ ही कषायों को क्षीण कर क्षमा, सहिष्णुता का अभ्यास किया जाता है तथा आलोचना आदि करके मन को निःशल्य बनाया जाता है।
संलेखना श्रमण और श्रमणोपासक दोनों के लिए ही विहित और आवश्यक अनुष्ठान है । उपासक दशा के वर्णन से यह भली-भाँति स्पष्ट हो जाता है कि आनन्द कामदेव आदि श्रावकों ने भी बहुत वर्षों तक गृहस्थ जीवन में सुख भोग करने के पश्चात् यह संकल्प किया कि "हमने जीवन में समाज, परिवार, राजनीति आदि प्रत्येक क्षेत्र में प्रवृत्ति कर अपना यश, वैभव आदि बढ़ाया है, परिवार व आश्रितों का पालन किया है। किन्तु इस प्रवृत्तिमय जीवन में पूर्ण रूप से आत्मचिन्तन नहीं कर सका। भगवान द्वारा प्ररूपित धर्म प्रज्ञप्ति का पूर्णत: पालन नहीं कर सका। अब मुझे इन सब प्रवृत्तियों से विरक्त होकर भगवद् प्ररूपित धर्म प्रज्ञप्ति को स्वीकार कर विचरना चाहिए ।" यह निश्चय कर वह अपनी पौषधशाला में आता है और आस-पास की भूमि की प्रतिलेखना कर "दब्भ संथारयं संथरइ" दर्भ का संथारा बिछाता है और धर्म प्रज्ञप्ति अंगीकार कर विविध तपःकार्यों द्वारा उपासक प्रतिमाओं की आराधना द्वारा शरीर को कृश कर डालता है।
यहाँ यह चिन्तनीय है कि हम जिसे-'संथारा' कहते हैं, वह अनशन का वाचक है, जबकि आगमों में 'संथारा' का अर्थ 'दर्भ का बिछौना' के रूप में ही आता है । संलेखना शब्द के विषय में भी सामूहिक प्रयोग हुए हैं। जैसे—मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता सट्ठि भत्ताई अणसणाए हेदेत्ता।" यहाँ पर यह चिन्तनीय है कि क्या
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