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सागारी संथारा करने का विधान है, जिसे “संथारा पोरसी” कहते हैं। सोने के पश्चात् पता नहीं प्रातः काल सुखपूर्वक उठ सकेगा या नहीं इसीलिए प्रतिपल प्रतिक्षण सावधान रहने का शास्त्रकारों ने सन्देश दिया है। मोह की प्रबलता में मृत्यु को न भूला जाये । उसे प्रतिक्षण याद रखा जाये। ममता भाव से मुड़कर समता भाव में रमण किया जाये, बाह्य जगत् से हटकर अन्तर् जगत् में प्रवेश किया जाए। सोते समय यदि विशुद्ध भावना रहती है तो स्वप्न में भी विचार विशुद्ध रहते हैं। इसीलिए साधक सोते समय "संथारा पोरसी" करता है।
संथारा या पंडितमरण एक महान कला है। मृत्यु को मित्र मानकर साधक उसके स्वागत की तैयारी करता है। वह अपने जीवन का अन्तर्निरीक्षण करता है। उसका मन स्फटिक की तरह उस समय निर्मल होता है। पण्डितमरण को समाधिमरण भी कहते हैं। संथारा ग्रहण करने के पूर्व साधक संलेखना करता है। संलेखना संधारे के पूर्व की भूमिका है। संलेखना के पश्चात् जो संधारा किया जाता है, उसमें अधिक निर्मलता और विशुद्धता होती है।
संलेखना का महत्व
पर
श्रमण और श्रावक दोनों के लिए संलेखना आवश्यक मानी गई है। श्वेताम्बर परम्परा में "संलेखना" शब्द का प्रयोग हुआ है तो दिगम्बर परम्परा में सल्लेखना शब्द का संलेखना व्रतराज है। जीवन की अन्तिम वेला में की जाने वाली एक उत्कृष्ट साधना है। जीवन भर कोई साधक उत्कृष्ट तप की साधना करता रहे, अन्त समय में यदि वह राग-द्वेष के दल-दल में फंस जाये ६८ तो उसका जीवन निष्फल हो जाता है। उसकी साधना विराधना में परिवर्तित हो जाती है। आचार्य शिवकोटि ने तो यहां तक लिखा है-ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप धर्म में चिरकाल तक निरतिचार प्रवृत्ति करने वाला मानव यदि मरण के समय धर्म की विराधना कर बैठता है तो वह संसार में अनंत काल तक परिभ्रमण करता है । ६९ संलेखना : जीवन की अन्तिम साधना
संलेखना मन की उच्चतम आध्यात्मिक दशा का सूचक है। संलेखना मृत्यु का आकस्मिक वरण नहीं है और न वह मौत का आह्वान ही है, वरन् जीवन के अन्तिम क्षणों में सावधानीपूर्वक चलना है। वह मृत्यु का मित्र की तरह आह्वान करता है - मित्र ! आओ, मैं तुम्हारा स्वागत करता हूँ। मुझे शरीर पर मोह नहीं है। मैंने अपने कर्तव्य को पूर्ण क्रिया है। मैने अगले जन्म के लिए सुगति का मार्ग ग्रहण कर लिया है। ७० संलेखना जीवन की अन्तिम आवश्यक साधना है। वह जीवन मंदिर का सुन्दर कलश है। यदि संलेखना के बिना साधक मृत्यु का वरण करता है तो उसे कदापि उचित नहीं माना जा सकता है।
संलेखना को एक दृष्टि से स्वेच्छा मृत्यु कहा जा सकता है। जब वैराग्य का तीव्र उदय होता है तब साधक को शरीर और
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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति ग्रन्थ
अन्य पदार्थ में बन्धन की अनुभूति होती है वह बन्धन को समझकर उससे मुक्त बनना चाहता है।
महाराष्ट्र के संत कवि ने कहा- "माझे मरण पाही एले डोला तो झाला सोहला अनुपम्य" मैंने अपनी आँखों से मृत्यु को देख लिया, यह अनुपम महोत्सव है।"
वह मृत्यु को आमंत्रित करता है, पर मृत्यु से भयभीत नहीं होता। जैसे कबूतर पर बिल्ली झपटती है तब कबूतर आँखें मूंद लेता है और वह सोचता है, अब बिल्ली झपटेगी नहीं आँखें मूँद लेने मात्र से बिल्ली कबूतर को छोड़ती नहीं है। इसी तरह यमराज भी मृत्यु भी भुला देने वाले को छोड़ता नहीं है। वह तो अपना हमला करता ही है। अतः साधक कायर की भाँति मुँह नहीं मोड़ता अपितु वीर सेनानी की तरह मुस्कराते हुए मृत्यु का स्वागत
करता है।
संलेखना : मृत्यु पर विजय पाने की कला
संलेखना मृत्यु पर विजय प्राप्त करने की कला सिखाती है। वह जीवन-शुद्धि और मरण शुद्धि की एक प्रक्रिया है। जिस साधक ने मदन के मद को गलित कर दिया है जो परिग्रह पंक से मुक्त हो चुका है, सदा सर्वदा आत्म चिन्तन में लीन रहता है वही व्यक्ति उस मार्ग को अपनाता है। संलेखना में सामान्य मनोबल वाला साधक, विशिष्ट मनोबल प्राप्त करता है। उसकी मृत्यु असमाधि का नहीं, समाधि का कारण है। एक सन्त कवि ने कहा-जैसे कोई वधू डोले
पर बैठकर ससुराल जा रही हो ७१ तब उसके मन में अपार आह्लाद होता है, वैसे ही साधक को भी परलोक जाते समय अपार प्रसन्नता होती है।
संलेखना और समाधिमरण
संलेखना और समाधिमरण ये दोनों पर्यायवाची शब्द हैं। आचार्य समन्तभद्र ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में प्रथम संलेखना का लक्षण बताया है और द्वितीय श्लोक में समाधिमरण का आचार्य शिवकोटि ने "संलेखना और समाधिमरण को एक ही अर्थ में प्रयुक्त किया है। आचार्य उमास्वाति ने श्रावक और श्रमण दोनों के लिए संलेखना का प्रतिपादन कर संलेखना और समाधिमरण का भेद मिटा दिया है। आचार्य कुन्दकुन्द समाधिमरण श्रमण के लिए मानते हैं और संलेखना गृहस्थ के लिए।
संलेखना क्या शिक्षावत है
श्रावक के द्वादश व्रतों में जो चार शिक्षाव्रत हैं उनमें आचार्य कुन्दकुन्द ने संलेखना को चौथा व्रत माना है । ७२ आचार्य कुन्दकुन्द का अनुसरण करते हुए शिवार्यकोटि, आचार्य देवसेन, आचार्य जिनसेन, आचार्य वसुनन्दि आदि ने संलेखना को चतुर्थ शिक्षाव्रत में सम्मिलित किया है। किन्तु आचार्य उमास्वाति ने संलेखना को श्रावक के द्वादश व्रतों में नहीं गिना है। उन्होंने संलेखना को अलग
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