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उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि स्मृति-ग्रन्थ । १२. केवलीमरण
प्रायोपगमन अनशन करने वाला साधक अपने शरीर को इतना केवलज्ञानी का मरण केवलीमरण है।
कृश कर लेता है कि उसके मलमूत्र आदि होते ही नहीं।३५ वह
अनशन करते समय जहाँ अपने शरीर को टिका देता है वहीं पर 100000१३. वैहायस मरण२६
वह स्थिर भाव से स्थित हो जाता है। इस तरह वह निष्प्रतिकर्म वृक्ष की शाखा से लटकने, पर्वत से गिरने, झंपा लेने, प्रभृति । होता है। वह अचल होता है, अतः अनिर्हार होता है। यदि कोई कारणों से होने वाला मरण वैहायसमरण है।
अन्य व्यक्ति उसे उठाकर दूसरे स्थान पर रख देता है तो भी १४. गृद्धपृष्ठमरण२७
स्वयंकृत चालन की अपेक्षा वह निर्हारी ही रहता है।३६ । हाथी आदि के कलेवर में प्रविष्ट होने पर उस कलेवर के
संविचारी और अविचारी, निर्हारी और अनिर्हारी ये शब्द साथ उस जीवित शरीर को भी गीध आदि नोंचकर मार डालते हैं। श्वताम्बर आर दिगम्बर दाना परम्पराआ म व्यवहृत हुए हैं किन्तु उस स्थिति में जो मरण होता है, वह गृद्धपृष्ठमरण है।
दोनों ही परम्पराओं में इनके अर्थ भिन्न-भिन्न हैं। जैसे श्वेताम्बर में
सविचार का अर्थ गमनागमन सहित है३७ तो दिगम्बर में अर्हलिंग १५. भक्तप्रत्याख्यानमरण२८
आदि विकल्प सहित है३८ श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार यावज्जीवन के लिए त्रिविध और चतुर्विध आहार के अविचार३९ का अर्थ गमनागमन रहित है तो दिगम्बर के त्यागपूर्वक जो मरण होता है वह भक्त प्रत्याख्यान मरण है।
अनुसार४० अर्हलिंग आदि विकार रहित है। श्वेताम्बर में मूलाराधना में इसका नाम “भक्त पयिण्णा' है और निहरी४१ का अर्थ है-उपाश्रय के एक स्थान में जिसमें मृत्यु के विजयोदया में "भक्तप्रतिज्ञा" है।
पश्चात् शरीर को निर्हरण किया जाये और दिगम्बर में स्वगण का
त्याग कर पर गण में जा सके वह निर्हारी है। श्वेताम्बर में १६. इंगिणीमरण२९
अनिर्हारी४२ का अर्थ है गिरि गुफा आदि में जिसमें मृत्यु के पश्चात् प्रतिनियत स्थान पर अनशनपूर्वक मरण को इंगिणीमरण कहा
निर्हरण करना आवश्यक हो, और दिगम्बर में४३ स्वगण का है। इस मरण में साधक अपनी शुश्रूषा स्वयं कर सकता है पर
त्यागकर पर गण में न जा सके वह। दूसरे श्रमणों से सेवा ग्रहण न करे, उसे भी इंगिणीमरण कहा है। इस मरण में चतुर्विध आहार का परित्याग आवश्यक होता है।
आचार्य शिवकोटि ने प्रायोपगमन के वर्णन में, अनिर्हारी और
निहारी का अर्थ अचल और चल भी किया है।४४ १७. पादपोपगमन मरण३०
भगवती सूत्र में इंगिणी और भक्तप्रत्याख्यान को एक मानकर ___ वृक्ष के नीचे स्थिर अवस्था में चतुर्विध आहार के त्यागपूर्वक
उनकी पृथक व्याख्या की है।४५ किन्तु मूलाराधना में४६ भक्तजो मरण होता है। वह पादपोपगमन मरण है। पादपोपगमन को ही ।
प्रत्याख्यान, इंगिणी और पादपोपगमन-इन तीनों को पंडितमरण का दिगम्बर ग्रन्तों में "प्रायोपगमन"३१ कहा है। जो अपनी परिचर्या ।
भेद माना है। स्वयं न करे और न दूसरों से बरवावे ऐसे संन्यास मरण को प्रायोपगमन अथवा प्रायोपज्ञमरण कहते हैं।
मरण के जो सत्रह प्रहार बताये हैं उनमें आवीचिरमण प्रतिपल
प्रतिक्षण होता है। वह सिद्धों के अतिरिक्त सभी संसारी प्राणियों में ___ पादपोपगमन३२ अपने पैरों से चलकर योग्य प्रदेश में ।
होता है। शेष मरण संसारी जीवों में संभव हो सकते हैं। जाकर जो मरण किया जाता है, उसे पादपोपगमन मरण कहा गया है। प्रस्तुत मरण को चाहने वाला श्रमण अपने शरीर की परियर्या
मरण के दो प्रकार न स्वयं करता है और न दूसरों से ही करवाता है। प्रस्तुत मरण उत्तराध्ययन सूत्र में मरण दो प्रकार के बताये हैं-अकामरण के लिए "प्रायोज्ञ"३३ अथवा “पाउग्गमण" पाठ भी प्राप्त होता और सकामरण।४७ टीकाकार ने अकाममरण का अर्थ विवेक रहित है। भव के अन्त करने योग्य संहनन और संस्थान को प्रायोज्ञ कहा मरण किया है और सकाममरण को चारित्र और विवेकयुक्त मरण है। विशिष्ट संहनन और संस्थान वाले ही इस मरण को वरण कहा है। अकाममरण पुनः पुनः होता है।४८ किन्तु सकाममरण करते हैं।
जीवन में एक बार होता है। पंडितमरण एक बार होता है, इसका ___भगवती सत्र में३४ पादपोपगमन के निर्हारी और अनिर्हारी ये
तात्पर्य है कि साधक कर्म क्षय कर मृत्यु को ऐसे वरण करता है दो भेद बताये हैं। निर्हारी उपाश्रय में मृत्यु को वरण करने वाले
जिससे पुनः मृत्यु प्राप्त न हो। "मरण विभक्ति' में कहा है-तुम श्रमण के शरीर को उपाश्रय से बाहर निकाला जाता है। इसलिए
ऐसा मरण मरो जिससे मुक्त बन जाओ।४९ उस मरण को निर्हारी कहते हैं। अनिर्हारी अरण्य में अपने शरीर । जिस मरण में विषय वासना की प्रबलता हो, कषाय की आग का परित्याग करने वाले श्रमण के शरीर को बाहर ले जाना नहीं । धधक कर सुलग रही हो कि विवेक की ज्योति लुप्त हो चुकी हो, पड़ता, इसलिए उसे अनिर्हारी मरण कहा गहा गया है।
हीन भावनाएं पनप रही हों, वह बालमरण है।
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