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दोनों के मिलाने से मालूम होगा कि जैनोंने संजयके पहले वाले तीन वाक्यों (प्रश्न और उत्तर दोनों) को अलग करके अपने स्याद्वाद की छह भङ्गियाँ बनाई हैं, और उसके चौथे वाक्य "न है और न नहीं है" को छोड़कर 'स्याद्' भी अवक्तव्य है यह सातवां भङ्ग तैयार कर अपनी सप्तभङ्गी पूरी की । उपलभ्य सामग्री से मालूम होता है कि संजय अनेकान्तवादका प्रयोग परलोक, देवता, कर्मफल, मुक्त पुरुष जैसे— परोक्ष विषयोंपर करता था । जैन संजयकी युक्तिको प्रत्यक्ष वस्तुओं पर लागू करते हैं । उदाहरणार्थं सामने मौजूद घटकी सत्ताके बारेमें यदि जैन दर्शन से प्रश्न पूछा जाय, तो उत्तर निम्न प्रकार मिलेगा
१. घट यहाँ है ? हो सकता है ( = स्यादस्ति ) | २. घट यहाँ नहीं है ?
नहीं भी हो सकता है ( = स्याद् नास्ति ) ।
३. क्या घट यहाँ है भी और नहीं भी है ? — है भी और नहीं भी हो सकता है ( = स्याद् अस्ति च
नास्ति च ) ।
४. 'हो सकता है' ( = स्याद्) क्या यह कहा जा सकता है ? नहीं, 'स्याद्' यह अ वक्तव्य है । ५. घट यहाँ 'हो सकता है' ( = स्यादस्ति) क्या यह कहा जा सकता है ? नहीं, 'घट यहाँ हो सकता है' यह नहीं कहा जा सकता है ।
६. घट यहाँ 'नहीं हो सकता ( = स्यान् नास्ति ) क्या यह कहा जा सकता है ? नहीं, 'घट यहाँ नहीं हो सकता' यह नहीं कहा जा सकता |
७. घट यहाँ 'हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता है, क्या यह कहा जा सकता है ? नहीं, 'घट' यहाँ हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता है' यह नहीं कहा जा सकता ।
इस प्रकार एक भी सिद्धान्त (= वाद ) की स्थापना न करना, जो कि संजयका वाद था, उसीको संजयके अनुयायियों के लुप्त हो जानेपर जैनोंने अपना लिया, और उसके चतुभंगी न्यायको सप्तभङ्गी में परिणत कर दिया । "
उक्त भ्रान्तियोंका निराकरण
मालूम होता है कि इन विद्वानोंने जैनदर्शनके स्याद्वाद सिद्धान्तको निष्पक्ष होकर समझनेका प्रयत्न नहीं किया और परम्परासे जो जानकारी उन्हें मिली उसीके आधारपर उन्होंने उक्त कथन किया है । अच्छा होता, यदि वे किसी जैन विद्वान् अथवा दार्शनिक जैन ग्रन्थसे जैनदर्शन के स्याद्वादको समझकर उसपर कुछ लिखते । हमें आश्चर्य है कि दर्शनों और उनके इतिहासका अपनेको अधिकारी विद्वान् माननेवाला राहुलजी जैसा महापण्डित जैनदर्शन और उसके इतिहासको छिपाकर यह कैसे लिख गया कि " संजयके वादको ही संजयके अनुयायियोंके लुप्त हो जानेपर जैनोंने अपना लिया ।" क्या वे यह मानते हैं कि जैनधर्म व जैनदर्शन और उनके माननेवाले जैन संजयके पहले नहीं थे ? यदि नहीं, तो उनका उक्त लिखना असम्बद्ध और भ्रान्त है । और यदि मानते हैं, तो उनकी यह बड़ी भारी ऐतिहासिक भूल है, जिसे स्वीकार करके उन्हें तुरन्त हो अपनी भूलका परिमार्जन करना चाहिये । यह अब सर्व विदित हो गया है और प्रायः सभी निष्पक्ष ऐतिहासिक भारतीय तथा पाश्चात्म विद्वानोंने स्वीकार भी कर लिया है कि जैनधर्म व जैनदर्शनके प्रवर्तक भगवान् महावीर नहीं थे, अपितु उनसे पूर्व हो गये ऋषभदेव आदि २३ तीर्थङ्कर उनके प्रवर्तक हैं, जो विभिन्न समयों में हुए हैं और जिनमें पहले तीर्थङ्कर ऋषभदेव, २२वें तीर्थङ्कर अरिष्टनेमि ( कृष्ण के समकालीन और उनके चचेरे भाई) तथा २३वें तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ तो ऐतिहासिक महापुरुष भी सिद्ध हो चुके हैं । अतः भगवान् महावीरके समकालीन संजय और उसके अनुयायियों के पूर्व जैनधर्म व जैनदर्शन और
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