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३१० : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्यं स्मृति ग्रन्थ
जैनदर्शनका सदसत्कार्यवाद
जैनदर्शन 'सदसत्कार्यवादी' है । उसका सिद्धान्त है कि प्रत्येक पदार्थ में मूलभूत द्रव्ययोग्यताएँ होनेपर भी कुछ तत्पर्याय योग्यताएँ भी होती हैं । ये पर्याययोग्यताएँ मूल द्रव्ययोग्यताओंसे बाहर की नहीं हैं, किन्तु उन्हींमेंसे विशेष अवस्थाओं में साक्षात् विकासको प्राप्त होनेवाली हैं । जैसे मिट्टीरूप पुद्गल के परमाणुओं में पुद्गलकी घट-पट आदिरूपसे परिणमन करनेकी सभी द्रव्ययोग्यताएँ हैं, पर मिट्टीकी तत्पर्याययोग्यता घटको ही साक्षात् उत्पन्न कर सकती है, पट आदिको नहीं । तात्पर्य यह है कि कार्य अपने कारणद्रव्यमें द्रव्ययोग्यता के साथ ही तत्पर्याययोग्यता या शक्तिके रूपमें रहता है। यानी उसका अस्तित्व योग्यता अर्थात् द्रव्यरूपसे ही है, पर्यायरूपसे नहीं है ।
सांख्य यहाँ कारणद्रव्य तो केवल एक 'प्रधान' ही है, जिसमें जगत् के समस्त कार्योंके उत्पादनकी शक्ति है । ऐसी दशामें जबकि उसमें शक्तिरूपसे सब कार्य मौजूद हैं, तब अमुक समयमें अमुक ही कार्य उत्पन्न हो यह व्यवस्था नहीं बन सकती । कारणके एक होनेपर परस्परविरोधी अनेक कार्योंकी युगपत् उत्पत्ति सम्भव ही नहीं है । अतः सांख्यके यह कहने का कोई विशेष अर्थ नहीं रहता कि 'कारणमें कार्य शक्तिरूपसे है, व्यक्तिरूपसे नहीं', क्योंकि शक्तिरूपसे तो सब सब जगह मौजूद है । 'प्रधान' चूंकि व्यापक और निरंश है, अतः उससे एक साथ विभिन्न देशोंमें परस्पर विरोधी अनेक कार्योंका आविर्भाव होना प्रतीतिविरुद्ध है। सीधा प्रश्न तो यह है कि जब सर्वशक्तिमान् 'प्रधान' नामका कारण सर्वत्र मौजूद है, तो मिट्टी के पिण्डसे घटकी तरह कपड़ा और पुस्तक क्यों नहीं उत्पन्न होते ?
जैनदर्शनका उत्तर तो स्पष्ट है कि मिट्टीके परमाणुओंमें यद्यपि पुस्तक और पटरूपसे परिणमन करनेकी मूल द्रव्ययोग्यता है, किन्तु मिट्टीकी पिण्डरूप पर्याय में साक्षात् कपड़ा और पुस्तक बनानेकी तत्पर्याययोग्यता नहीं है, इसलिए मिट्टीका पिण्ड पुस्तक या कपड़ा नहीं बन पाता । फिर कारण द्रव्य भी एक नहीं, अनेक हैं; अतः सामग्री के अनुसार परस्पर विरुद्ध अनेक कार्योंका युगपत् उत्पाद बन जाता है । महत्ता तत्पर्याययोग्यता की है । जिस क्षण में कारणद्रव्यों में जितनी तत्पर्याययोग्यताएँ होंगी उनमेंसे किसी एकका विकास प्राप्त कारणसामग्री के अनुसार हो जाता है । पुरुषका प्रयत्न उसे इष्ट आकार और प्रकार में परिणत करानेके लिए विशेष साधक होता है । उपादानव्यवस्था इसी तत्पर्याययोग्यता के आधारपर होती मात्र द्रव्ययोग्यताके आधारसे नहीं; क्योंकि द्रव्ययोग्यता तो गेहूँ और कोदों दोनों बीजोंके परमाणुओं में सभी अंकुरों को पैदा करनेकी समानरूपसे है परन्तु तत्पर्याययोग्यता कोदोंके बीजमें कोदोंके अंकुरको ही उत्पन्न करने की है । तथा गेहूँके बीजमें गेहूँके अंकुरको ही उत्पन्न करने की है। इसीलिए भिन्न-भिन्न कार्योंकी उत्पत्तिके लिए भिन्न-भिन्न उपादानोंका ग्रहण होता है ।
धर्मकीर्ति आक्षेपका समाधान
अतः बौद्धका' यह दूषण कि "दहीको खाओ, यह कहनेपर व्यक्ति ऊँटको क्यों नहीं खाने दौड़ता ? जबकि दही और ऊँटके पुद्गलों में पुद्गलद्रव्यरूपसे कोई भेद नहीं है ।" उचित मालूम नहीं होता; क्योंकि जगत्का व्यवहारमात्र द्रव्य-योग्यतासे नहीं चलता, किन्तु तत्पर्याययोग्यतासे चलता है । ऊँटके शरीरके पुद्गल और
१. सर्वस्योभयरूपत्वे
तद्विशेषनिराकृतेः । चोदितो दधि खादेति किमुष्ट्रं नाभिधावति ॥ "
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