________________
२४ : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्थ
अपने लेखके परिशिष्टमें पं० रामप्रसादजी शास्त्री एक और गलती कर गये हैं। उन्होंने अपनी ऊपर बतलायो हुई कल्पनाको गौण करके वहाँपर एक दूसरी ही कल्पनाको जन्म दिया है। वे कहते हैं कि 'अस्मादेवार्षाद् द्रव्यस्त्रीणां निवृत्तिः सिद्धचेदिति चेन्न' इस पंक्तिमें द्वितकारवाले 'निर्वृत्ति' शब्दका अर्थ मुक्ति नहीं है बल्कि निष्पत्ति है । हम नहीं समझते कि 'निर्गता नष्टा नृत्तिर्वर्तनं संसारभ्रमणमित्थर्थःइस व्युत्पत्ति के आधारपर द्वितकारवाले निवृत्ति शब्दका अर्थ 'मुक्ति' करने में उन्हें क्या आपत्ति है और फिर श्रीवीरसेन स्वामीने द्वितकारवाले 'निर्वृत्ति' शब्दका पाठ न करके एक तकारवाले 'निर्वृति' शब्दका पाठ किया हो, इस सम्भावनाको कैसे टाला जा सकता है ? यद्यपि वाक्यविन्यासको तोड़-मरोड़ करके पं० रामप्रसादजी शास्त्रीने इस बातकी कोशिश की है कि श्री वीरसेन स्वामीको वहांपर द्वितकारवाले 'निर्वृत्ति' शब्दका पाठ ही अभीष्ट है, परन्तु हम कहेंगे कि पं० रामप्रसादजी शास्त्रीने इस प्रयत्नमें विशुद्ध वैयाकरणत्वका ही आधयण किया है क्योंकि उनकी अपने ढंगसे वाक्योंकी तोड़मरोड़ करनेकी कोशिशके बाद भी वे अपने उद्देश्यके नजदीक नहीं पहुँच सकते हैं अर्थात् पहले कहा जा चुका है कि मनुष्यणी शब्दका अर्थ पर्याप्तनामकर्म और स्त्रीवेदनोकषायके उदयविशिष्ट मनुष्यगतिनामकर्मके उदयवाला जीव ही आगमग्रन्थोंमें लिया गया है और वह द्रव्यसे स्त्रीकी तरहसे द्रव्यसे पुरुष भी हो सकता है । तात्पर्य यह है कि 'मनुष्यणी' शब्दका अर्थ स्त्रीवेदनोकषायके उदयसहित द्रव्यस्त्रीकी तरह स्त्रीवेदनोकषायके उदयसहित द्रव्यपुरुष भी होता है और यही अर्थ समानरूपसे सत्प्ररूपणा, क्षेत्रानुगम, स्पर्शानुगम आदि प्ररूपणाओंमें 'मनुष्यणी' शब्दका है ऐसा समझना चाहिये । इस तथ्यको समझनेके लिये सम्बद्ध सूत्रों तथा उनको धवला टीकाका गम्भीरतापूर्वक चिन्तन करनेको जरूरत है । सम्बद्ध सूत्रों और उनकी धवला टीका गम्भीरतापूर्वक चिन्तन न करनेका हो यह परिणाम है कि पं० रामप्रसादजी शास्त्री और भी बहुत-सी आलोचनाके योग्य बातें अपने लेखमें लिख गये हैं, जिनपर विचार करना यहाँ पर हम अनावश्यक समझते हैं।
बहुत विचार करनेके बाद हमने श्री पं० रामप्रसादजी शास्त्रीके उनके अपने लेखमें गलत और कष्टसाध्य प्रयत्न करनेका एक ही निष्कर्ष निकाला है और वह यह है कि वे इस बातसे बहुत ही भयभीत हो गये हैं कि यदि सत्प्ररूपणाके ९३वें सूत्रमें 'संयत' पदका समावेश हो गया तो दिगम्बर सम्प्रदायको नीव ही चौपट हो जायगी । परन्तु उन्हें विश्वास होना चाहिये कि ९३वे सूत्र में संयतपदका समावेश हो जानेपर भी न केवल स्त्रीमुक्तिका निषेधविषयक दिगम्बर मान्यताको आंच आनेकी सम्भावना नहीं है अपितु षट्खण्डागमकी सत्प्ररूपणा, क्षेत्रानुगम, स्पर्शानुगम आदि प्रकरणगत सूत्रोंमें परस्पर सामञ्जस्य भी हो जाता है ।
हमारे इस कथनका मतलब यह है कि मूडबिद्रीको प्राचीनतम प्रतिमें भी संयत पद मौजूद हो, या न हो, परन्तु सत्प्ररूपणाके ९३वें सूत्रमें उसकी (संयतपदकी) अनिवार्य आवश्यकता है, हर हालतमें वह अभीष्ट है । दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायोंमें परस्पर जो मतभेद है वह पर्याप्त मनुष्यणीके चौदह गुणस्थान न मानने अथवा माननेका नहीं है क्योंकि पर्याप्त मनुष्यणीके चौदह गुणस्थानोंकी मान्यता उक्त दोनों सम्प्रदायोंमेंसे किसी एक सम्प्रदायकी मान्यता नहीं है बल्कि जैनधर्मकी ही मूल मान्यता है और इस मान्यताको उभय सम्प्रदायोंने समान रूपसे अपनी-अपनी मान्यतामें स्थान दिया है। इन दोनों सम्प्रदायोंमें जो मतभेद है वह इस बातका है कि जैनधर्ममें पर्याप्त मनुष्यणीके जो चौदह गुणस्थान स्वीकार किये गये हैं वे जहाँ दिगम्बर सम्प्रदायोंमें पर्याप्त मनुष्यणीशब्दसे व्यवहृत स्त्रीवेदनोकषायके उदयवाले द्रव्यसे पुरुषके ही संभव माने गये है वहाँ श्वेताम्बर सम्प्रदायमें पर्याप्तमनुष्यणीशब्दसे व्यवहृत स्त्रीवेदनोकषायके उदयवाले द्रव्यसे स्त्रीके भी संभव माने गये हैं और इस मतभेदका मूल कारण यही जान पड़ता है कि दिगम्बर संप्रदायमें वस्त्रग्रहणको संयमका
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org