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५ / साहित्य और इतिहास : १९ करने के लिये प्रेरणा करते हुए कुछ उपाय भी सुझाये हैं । और हमें विश्वास है कि श्री मुख्तार साहब भी स्वप्न में यह नहीं सोच सकते हैं कि प्रोफेसर साहब और उनके सहयोगियों द्वारा मूड़बिद्रीकी प्रतिमें संयतपद जोड़नेका अनुचित प्रयत्न किया गया होगा, परन्तु संदेह पैदा होने के कारणभूत जिन दलीलोंका श्री मुख्तार साहब ने अपने लेख में संकेत किया है वे इतनी स्वाभाविक हैं कि उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती है। हम आशा करते हैं कि संबंधित महानुभावों का ध्यान श्री मुख्तार साहबके लेख पर पहुँचा होगा और उन्होंने संदेह निवारण करनेके लिये प्रयत्न चालू कर दिया होगा ।
हम मानते हैं कि उक्त संदेह श्री प्रोफेसर साहब और उनके सहयोगियोंकी नीयत पर भयंकर हमला है परन्तु जब मनुष्य किसी भी वाद-विवाद के दलदल में फँस जानेपर अपनी प्रामाणिकताको सुरक्षित रखने के महत्त्वको भूल कर स्वार्थ और अभिभावकी पुष्टिके लिये उदारता और सहिष्णुता के मार्गको छोड़ देता है तो उसकी नीयत पर ऐसे भयंकर हमलोंका होना आश्चर्यकी बात नहीं है । और हमें कहना पड़ रहा है कि साधारण समाज ने प्रोफेसर साहबके उक्त वक्तव्यके विरुद्ध अपनी जो भावना प्रदर्शित की है वह तो किसी रूप में उचित मानी जा सकती है परन्तु समाजके विचारोंका प्रतिनिधित्व करनेवाले विषयके विद्वानोंने तथा श्री प्रोफेसर साहब और उनके सहयोगियोंने निश्चित ही अपनी जवाबदारी यथोचित रीतिसे नहीं निबाही है। जब श्री प्रोफेसर साहबके उक्त वक्तव्यके विरुद्ध दिगम्बर समाजमें आवाज उठी तो उन्होंने यह कहकर उस आवाजको दबानेकी कोशिश की, कि उन्होंने वह वक्तव्य जिज्ञासुभावसे प्रेरित होकर प्रकट किया है, उनकी मंशा दिगम्बर मान्यताओं पर चोट करनेकी नहीं है । प्रोफेसर साहबकी मंशा भले ही दिगम्बर मान्यताओं पर चोट करनेकी न हो, परन्तु उनका वक्तव्य दिगम्बर मान्यताओंका स्पष्ट खण्डन है, इस बात इन्कार नहीं किया जा सकता है। हमें प्रोफेसर साहबके उक्त वक्तव्य में ऐसा एक भी वाक्य नहीं मिल रहा है जो उनके जिज्ञासुभावको प्रदर्शित कर रहा हो। इसलिये वक्तव्य प्रकट करनेके बाद दिगम्बर समाजको सान्त्वना देनेके लिये प्रोफेसर साहब द्वारा लुभावने शब्दों का प्रयोग हमारी समझ के अनुसार निरर्थक ही नहीं बल्कि अनुचित जान पड़ता है ।
इसी प्रकार कहना होगा कि श्री प्रेमीजीके लेखका "अन्यायका प्रमाण मिल गया" यह शीर्षक उनके स्वगत अभिमान और विरोधी पक्षके प्रति रोष एवं तिरस्कारका ही सूचक | हमारा यह भी खयाल है कि प्रोफेसर साहब व पं० फूलचन्द्रजीके बीच चल रही उक्त वक्तव्य से संबद्ध तत्वचर्चाका बीच में ही पं० फूलचन्द्रजीसे बिना पूछे ही स्वतंत्र पुस्तकके रूपमें प्रकाशित कर देना श्री प्रेमीजी जैसे गण्यमान्य व्यक्ति के लिये शोभास्पद बात नहीं है ।
हमें अच्छी तरह याद है कि गतवर्ष कलकत्तामें वीर शासन महोत्सव के अवसरपर प्रोफेसर साहब - के उक्त वक्तव्यपर उभय पक्षकी ओरसे जिस तत्त्वश्च र्चाका आयोजन किया गया था वह तत्त्वचर्चा उस आयोजनके लिये निर्णीत सभापति के संचालनकी ढिलाईके कारण अनावश्यक और अनुचित शास्त्रार्थका रूप धारण कर गयी थी और उपस्थित समाजको अपनी ओर आकर्षित करना तथा अपने विपक्षका किसी तरह मुख बन्द करना ही उसका प्रधान लक्ष्य हो गया था। हम मानते हैं कि इसमें अधिक अपराधी वक्तव्य के विरुद्ध बोलनेवाली पार्टीको ही ठहराया जा सकता है ।
हमें पं० हीरालालाजीके "प्रोफेसर साहबके वक्तव्य पर मेरा स्पष्टीकरण" शीर्षक वक्तव्यको देखकर महान आश्चर्य हुआ कि ग्रन्थके सम्पादक होते हुए भी सूत्र में 'संयत' पद जोड़ने की अपनी जवाबदारीसे हटनेके लिये उन्होंने अनुचित, असोचनीय और असफल प्रयत्नको अपनाया है । तथा यह देख कर तो और भी
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