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का निर्माण होने लगा । जैन मुनि भी अब वनों को छोड़कर जिनालयों के साथ संलग्न भवनों [ चैत्यालयों] में निवास करने लगे। स्थिरवास एवं जिनालयों के स्वामित्व प्राप्त होने के फलस्वरूप इन श्रमणों में अन्य दोषों के साथ-साथ परस्पर विद्वेष एवं अहंभाव का भी अंकुरण हुआ। इनमें अपने-अपने अनुयायियों की संख्या में वृद्धि करने की होड़ सी लगी हुई थी । इन्हीं परिस्थितियों में श्वेताम्बर श्रमणसंघ विभिन्न नगरों, जातियों, घटनाविशेष तथा आचार्यविशेष के आधार पर विभाजित होने लगा। विभाजन की यह प्रक्रिया दसवीं - ग्यारहवीं शताब्दी में तेजी से प्रारम्भ हुई, जिसका क्रम आगे भी जारी रहा ।
श्वेताम्बर सम्प्रदाय के गच्छों का सामान्य परिचय. pt 12mu
श्वेताम्बर श्रमणों का एक ऐसा भी वर्ग था जो श्रमणावस्था में सुविधावाद के पनपने से उत्पन्न शिथिलाचार का कट्टर विरोधी था । आठवीं शताब्दी में हुए आचार्य हरिभद्र ने अपने समय के चैत्यवासी श्रमणों के शिथिलाचार का अपने ग्रन्थ सम्बोधप्रकरण में विस्तृत वर्णन किया है और इनके विरुद्ध अपनी आवाज उठायी है। चैत्यवासियों पर इस विरोध का प्रतिकूल असर पड़ा और उन्होंने सुविहितमार्गीय श्रमणों का तरह-तरह से विरोध करना प्रारम्भ किया। गुर्जर प्रदेश में तो उन्होंने चावड़ा वंशीय शासक वनराज चावड़ा से राजाज्ञा जारी करा सुविहितमार्गीयों का प्रवेश ही निषिद्ध करा दिया। फिर भी सुविहितमार्गीय श्रमण शिथिलाचारी श्रमणों के आगे नहीं झुके और उन्होंने चैत्यवास का विरोध जारी रखा । अन्ततः चौलुक्य नरेश दुर्लभराज [ वि.सं. 1066-10821 की राजसभा में चन्द्रकुलीन वर्द्धमानसूरि के शिष्य जिनेश्वरसूरि ने चैत्यवासियों को शास्त्रार्थ में पराजित कर गुर्जरभूमि में सुविहितमार्गियों के विहार और प्रवास को निष्कंटक बना दिया।
कालदोष से सुविहितमार्गीय भ्रमण भी परस्पर मतभेद के शिकार होकर समय-समय पर बिखरते रहे, फलस्वरूप नये-नये गच्छ ( समुदाय) अस्तित्व में आते रहे। जैसे चन्द्रकुल की एक शाखा वडगच्छ से पूर्णिमागच्छ, सार्धपूर्णिमागच्छ, सत्यपुरीयशाखा आदि अनेक शाखायें- उपशाखायें अस्तित्व में आयीं। इसी प्रकार खरतरगच्छ से भी कई उपशाखाओं का उदय हुआ।
जैसा कि लेख के प्रारम्भ में कहा जा चुका है एक स्थान पर स्थायी रूप से रहने की प्रवृत्ति से मुनियों एवं श्रावकों के मध्य स्थायी सम्पर्क बना, फलस्वरूप उनकी प्रेरणा से नये-नये जिनालयों एवं वसतियों का द्रुतगति से निर्माण होने लगा। स्थानीयकरण की इसी प्रवृत्ति के फलस्वरूप स्थानों के नाम पर ही कुछ गच्छों का भी नामकरण होने लगा, यथा कोरटा नामक स्थान से कोरंटगच्छ, नाणा नामक स्थान से नाणकीयगच्छ, ब्रह्माण ( आधुनिक वरमाण) नामक स्थान से ब्रह्माणगच्छ, संडेर (वर्तमान सांडेराव) नामक स्थान से संडेरगच्छ, हरसोर नामक स्थान से हर्षपुरीयगच्छ, पल्ली (वर्तमान पाली) नामक स्थान से पल्लीवालगच्छ आदि अस्तित्त्व में आये । यद्यपि स्थानविशेष के आधार पर ही इन गच्छों का नामकरण हुआ था, किन्तु सम्पूर्ण पश्चिमी भारत के प्रमुख जैन तीर्थों एवं नगरों में इन गच्छों के अनुयायी श्रमण एवं श्रावक विद्यमान थे। यह बात सम्पूर्ण पश्चिमी भारत के विभिन्न स्थानों में इनके आचार्यों द्वारा प्रतिष्ठापित प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण लेखों से ज्ञात होती है।
कुछ गच्छ तो घटनाविशेष के कारण ही अस्तित्व में आये। जैसे चन्द्रकुल के आचार्य धनेश्वरसूरि [वादमहार्णव के रचनाकार अभयदेवसूरि के शिष्य ] साधुजीवन के पूर्व कर्दम नामक राजा थे, इसी आधार पर उनके शिष्य राजगच्छीय कहलाये ।
इसी प्रकार आचार्य उद्योतनसूरि ने आबू के समीप स्थित टेली नामक ग्राम में वटवृक्ष के नीचे सर्वदेवसूरि आदि 8 मुनियों को एक साथ आचार्यपद प्रदान किया । वटवृक्ष के आधार पर इन मुनिजनों का शिष्य परिवार वटगच्छीय कहलाया । वटवृक्ष के समान ही इस गच्छ की अनेक शाखायें - उपशाखायें अस्तित्त्व में आयीं, अतः इसका एक नाम बृहद्गच्छ भी पड़ गया। इसी प्रकार खरतरगच्छ आगमिकगच्छ, पूर्णिमागच्छ, सार्धपूर्णिमागच्छ, अंचलगच्छ, पिप्पलगच्छ आदि भी घटनाविशेष से ही अस्तित्व में आये ।
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