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शिवप्रसाद
16वीं शती के अन्त तक के हैं। इन लेखों में विमलसूरि, बुद्धिसागरसूरि, उदयप्रभसूरि, मुनिचन्द्रसूरि आदि आचार्यों के नाम पुनः पुनः आते हैं, जिससे प्रतीत होता है कि इस गच्छ के मुनिजन चैत्यवासी रहे होंगे। इस गच्छ से सम्बद्ध साहित्यिक साक्ष्यों का प्रायः अभाव है, अतः इसके बारे में विशेष बातें ज्ञात नहीं होती हैं।
वडगच्छ सुविहितमार्गप्रतिपालक और चैत्यवासविरोधी गच्छों में वडगच्छ का प्रमुख स्थान है। परम्परानुसार चन्द्रकुल के आचार्य उद्योतनसरि ने वि.सं. 994 में आबू के निकट स्थित टेलीग्राम में वटवृक्ष के नीचे सर्वदेवसरि सहित 8 शिष्यों को आचार्यपद प्रदान किया। वडवृक्ष के नीचे उन्हें प्राप्त होने के कारण उनकी शिष्यसन्तति वडगच्छीय कहलायी। वटवृक्ष के समान इस गच्छ की भी अनेक शाखायें-प्रशाखायें अस्तित्त्व में आरी, अतः इसका एक नाम बृहद्गच्छ भी पड़ गया। गुर्जरभूमि में विधिमार्गप्रवर्तक वर्धमानसूरि, उनके शिष्य जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागरसूरि, नवाङ्गीवृत्तिकार अभयदेवसूरि, आख्यानकमणिकोश के रचयिता देवेन्द्रगणि अपरनाम नेमिचन्द्रसूरि, उनके शिष्य आम्रदेवसूरि, प्रसिद्ध ग्रन्थकार मुनिचन्द्रसूरि, उनके पट्टधर प्रसिद्ध वादी देवसूरि, रत्नप्रभसूरि, हरिभद्रसूरि आदि अनेक प्रभावक और विद्वान् आचार्य हो चुके हैं। इस गच्छ की कई अवान्तर शाखायें अस्तित्व में आयीं, जैसे वि.सं. 1149 या 1159 में यशोभद्र-नेमिचन्द्र के शिष्य और मुनिचन्द्रसरि के ज्येष्ठ गुरुभ्राता चन्द्रप्रभसूरि से पूर्णिमागच्छ का उदय हुआ। इसी प्रकार वडगच्छीय शांतिसूरि द्वरा वि.सं. 1181/ई. सन् 1125 में पीपलवृक्ष के नीचे महेन्द्रसूरि, विजयसिंहसूरि आदि 8 शिष्यों के आचार्यपद प्रदान करने के कारण उनकी शिष्यसन्तति पिप्पलगच्छीय कहलायी। अभिलेखीय साक्ष्यों द्वारा वि.सं. की 17वीं शती के अन्त तक वडगच्छ का अस्तित्व ज्ञात होता है। ___ मलधारिगच्छ या हर्षपुरीयगच्छ हर्षपुर (वर्तमान हरसौर ) नामक स्थान से इस गच्छ की उत्पत्ति मानी जाती है। जिनप्रभसूरि विरचित कल्पप्रदीप [रचनाकाल वि.सं. 1389/ई. सन् 1333] के अनुसार एक बार चौलुक्यनरेश जयसिंह सिद्धराज ने हर्षपुरीयगच्छ के आचार्य अभयदेवसूरि को मलमालिन वस्त्र एवं उनके मलयुक्तदेह को देखकर उन्हें 'मलधारि नामक उपाधि से अलंकृत किया। उसी समय से हर्षपुरीयगच्छ मलधारिगच्छ के नाम से विख्यात हुआ।44 इस गच्छ में अनेक ग्रन्थों के प्रणेता हेमचन्द्रसूरि, विजयसिंहसूरि, श्रीचन्द्रसूरि, लक्ष्मणगणि, विबुधप्रभसूरि, जिनभद्रसूरि, मुनिचन्द्रसूरि, देवप्रभसूरि, नरचन्द्रसूरि, नरेन्द्रप्रभसूरि, राजशेखरसूरि, सुधाकलश आदि प्रसिद्ध आचार्य और विद्वान् मुनिजन हो चुके हैं। इस गच्छ के मुनिजनों द्वारा बड़ी संख्या में रची गयी कृतियों की प्रशस्तियों एवं गच्छ से सम्बद्ध वि.सं. 1190 से वि.सं. 1699 तक के प्रतिमालेखों में इतिहास सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण सामग्री प्राप्त होती है।
मोदमच्छ गुजरात राज्य के मेहसाणा जिले में अवस्थित मोढेरा [प्राचीन मोदेर नामक स्थान से मोदज्ञाति एवं मोढगच्छ की उत्पत्ति मानी जाती है। ई.सन् की 10वीं शताब्दी की धातु की दो प्रतिमाओ पर उत्कीर्ण लेखों में इस गच्छ का उल्लेख प्राप्त होता है। इससे प्रमाणित होता है कि उक्त तिथि के पूर्व यह गच्छ अस्तित्व में आ चुका था। प्रभावकचरित से भी उक्त मत की पुष्टि होती है। ई.सन् 1171/वि.सं. 1227 के एक लेख में भी इस गच्छ का उल्लेख मिलता है। श्री पूरनचन्द नाहर ने इसकी वाचना इस प्रकार दी है --
__सं. 1227 वैशाख सुदि 3 गुरौ नंदाणि ग्रामेन्या श्राविकया आत्मीयपुत्र लूणदे श्रेयोर्थ चतुर्विंशति पट्टः कारिताः ।। श्रीमोढगच्छे बप्पभट्टिसंताने जिनभद्राचार्यैः प्रतिष्ठितः । जैनलेखसंग्रह भाग 2, लेखांक 1694
वि.सं. 1325 में प्रतिलिपि की गयी कालकाचार्यकथा की दाता प्रशस्ति में मोढगुरु हरिप्रभसूरि का उल्लेख प्राप्त होता है। यद्यपि इस गच्छ से सम्बद्ध साक्ष्य सीमित संख्या में प्राप्त होते हैं, फिर भी उनके आधार पर इस गच्छ का लम्बे काल तक अस्तित्व सिद्ध होता है। प्रो. एम.ए. ढांकी का मत है कि जैनधर्मानुयायी मोढ ज्ञाति द्वारा स्थानकवासी (अमूर्तिपूजक) जैनधर्म अथवा वैष्णवधर्म स्वीकार कर लेने से इस श्वेताम्बर मूर्ति पूजक
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