________________ 638 जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ व दर्शन उपयोग ऐसे दो शीर्ष हैं तथा पाँच इन्द्रियां, मन व बुद्धि ऐसे हैं, किन्तु प्रश्न यह है कि क्या 'वृषभ' शब्द को सदैव ही एक विशेषण सात हाथ हैं। श्रृङ्ग आत्मा के सर्वोत्तम दशा के सूचक हैं जो साधना की माना जाय। पूर्णता पर अनन्त चतुष्टय के रूप में प्रकट होते हैं और पाद उस साधना यह ठीक है कि इन्द्र वर्षा का देवता है। उसे श्रेष्ठ या बलवान मार्ग के सूचक हैं जिसके माध्यम से उस सर्वोत्तम आत्म अवस्था को प्राप्त माना गया है। अत: उसका विशेषण वृषभ हो सकता है किन्तु इसके किया जा सकता है। सप्त हस्त ज्ञान प्राप्त के सात साधनों को सूचित विपरीत इन्द्र शब्द को भी वृषभ का विशेषण माना जा सकता है। जैन करते हैं। ऋषभ को त्रिधाबद्ध कहने का तात्पर्य यह है कि वह मन-वचन परम्परा में ऋषभ आदि तीर्थंकरों के लिए जिनेन्द्र विशेषण प्रसिद्ध ही है। एवं काय योगों की उपस्थिति के कारण ही संसार में है। बद्ध का अर्थ अथर्ववेद (9.9.7) में इन्द्रस्य रूपं ऋषभो कहकर दोनों को पर्यायवाची संयत या नियन्त्रित करने पर मन, वचन, व काय से संयत ऐसा अर्थ बना दिया गया है। इन्द्र का अर्थ ऐश्वर्य का धारक ऐसा भी होता है। इस भी किया जा सकता है। रूप में वह वृषभ का विशेषण भी बन सकता है। जिस प्रकार वृषभ को इस प्रकार से हम देखते हैं कि यहां जैन दृष्टि से किया लाक्षणिक इन्द्र, अग्नि, रुद्र, बृहस्पति आदि का विशेषण माना गया है उसी प्रकार अर्थ उतना ही समीचीन है, जितना स्वामी दयानन्द का लाक्षणिक अर्थ व्याख्या को परिवर्तित करके इन्द्र, रुद्र, अग्नि और बृहस्पति को वृषभ इतना अवश्य सत्य है कि इस ऋचा का कोई भी शब्दानुसारी अर्थ इसके का विशेषण भी माना जा सकता है। अर्थ को अभिव्यक्त नहीं कर सकता है। अतः हमें मानना होगा कि वैदिक यहाँ वृषभ आप इन्द्र या जिनेन्द्र हैं-ऐसी व्याख्या भी बहुत ऋचाओं के अर्थ को समझने के लिए इनकी लाक्षणिकता को स्वीकार असंगत नहीं कही जा सकती है। कुछ जैन विद्वानों की ऐसी मान्यता भी किये बिना अन्य कोई विकल्प नही है। है कि वेदों में 'जात-वेदस' शब्द जो अग्नि के लिए प्रयुक्त हुआ है वह सायण आदि वेदों के भाष्यकारों ने सामान्य रूप में 'वृषभ' शब्द जन्म से त्रिज्ञान सम्पन्न ज्योति स्वरूप भगवान ऋषभदेव के लिए ही हैं। की व्याख्या एक विशेषण के रूप में की है और उसके प्रसंगानुसार वे यह मानते हैं कि “रत्नधरक्त", "विश्ववेदस", "जातवेदस" आदि बलवान, श्रेष्ठ, वर्षा करने वाला, कामनाओं की पूर्ति करने वाला-ऐसा शब्द जो वेदों में अग्नि के विशेषण हैं वे रत्नत्रय से युक्त विश्व तत्त्वों अर्थ किया है। वे वृषभ को इन्द्र, अग्नि, रूद्र आदि वैदिक देवताओं का के ज्ञाता सर्वज्ञ ऋषभ के लिए भी प्रयुक्त हो सकते हैं। इतना निश्चित है एक विशेषण मानते हैं एवं इसी रूप में उसे व्याख्यायित भी करते हैं। कि ये शब्द सामान्य प्राकृतिक अग्नि के विशेषण तो नहीं माने जा सकते चाहे वृषभ का अर्थ बलवान या श्रेष्ठ करें अथवा उसे वर्षा करने वाला हैं। चाहे उन्हें अग्निदेव का वाची माना जाय या ऋषभदेव का, वे किसी या कामनाओं की पूर्ति करने वाला कहें, वह एक विशेषण के रूप में दैवीय शक्ति के ही विशेषण हो सकते हैं। जैन विद्वानों का यह भी कहना ही गृहीत होता है। यह सत्य है कि अनेक प्रसंगों में वृषभ शब्द की व्याख्या है कि अग्नि देव के रूप में ऋषभ की स्तुति का एक मात्र हेतु यही दृष्टिगत एक विशेषण के रूप में की जा सकती है। स्वयं जैन एवं बौद्ध परम्पराओं होता है। ऋषभदेव स्थूल व सूक्ष्म शरीर से परिनिवृत्त होकर सिद्ध, बुद्ध में भी वृषभ शब्द का प्रयोग एक विशेषण के रूप में हुआ है। बौद्ध ग्रन्थ व मुक्त हुए उस समय उनके परम प्रशान्त को आत्मसात करने वाली अग्नि धम्मपद के अन्त में एक गाथा में वृषभ शब्द का प्रयोग विशेषण के रूप ही तत्कालीन जनमानस के लिए स्मृति का विषय रह गयी और जनता में हुआ है। वह गाथा निम्नानुसार है अग्नि दर्शन से ही अपने आराध्य देव का स्मरण करने लगी। (देवेन्द्रमनी उसंभं पवरं वीरं महेसिं विजिताविनं। शास्त्री: ऋषभदेव एक परिशीलन, पृ.४३) अनेजं नहातकं बुद्धं तमहं ब्रमि ब्राह्मणं।। जैन विद्वानों के इस चिन्तन में कितनी सार्थकता है यह एक (धम्मपद, 26.1.40) स्वतन्त्र चर्चा का विषय है, यहाँ में उसमें उतरना नहीं चाहता हूँ, किन्तु अत: इस सम्बन्ध में कोई आपत्ति नहीं की जा सकती है कि यह बताना चाहता हूँ कि विशेषण एवं विशेष्य के रूप में प्रयुक्त दोनों वृषभ शब्द का प्रयोग विशेषण के रूप में नहीं हो सकता, किन्तु यह शब्दों में यदि संज्ञा रूप में प्रयुक्त होने की सामर्थ्य है तो उनमें किसे भी नहीं कहा जा सकता कि वृषभ शब्द सर्वत्र विशेषण के रूप में ही विशेषण और किसे विशेष्य माना जाय-यह व्याख्याकार की अपनी-अपनी प्रयुक्त होता है। 'वृषभ' शब्द का प्रयोग साहित्य के क्षेत्र में विशेषण पद दृष्टि पर ही आधारित होगा। साथ ही दोनों को पर्यायवाची भी माना जा व संज्ञा पद दोनों रूपों में ही पाया जाता है। सकता है। ऋग्वेद में ही अनेक ऐसे स्थल हैं जहाँ वैदिक विद्वानों ने 'वृषभ' ऋग्वेद में रुद्र की स्तुति के सन्दर्भ में भी वृषभ शब्द का प्रयोग शब्द का प्रयोग विशेषण के रूप में माना है। जैसे हुआ है। स्वयं ऋग्वेद में ही एक ओर रुद्र को उग्र एवं शस्त्रों को धारण 1. त्वं अग्ने वृषभः (1/31/5) करने वाला कहा गया, वहीं दूसरी ओर उसे विश्व प्राणियों के प्रति दयावान 2. वृषभ: इन्द्रो (1/33/10) और मातृवत् भी कहा गया है (2/33/1) / इस ऋचा की चर्चा हम पूर्व 3. त्वं अग्ने इन्द्रो वृषभः (2/1/3) में कर चुके हैं। एक ही व्यक्ति कठोर व कोमल दोनों हो सकता है। ऋषभ 4. वृषभं.... इन्द्रं (3/47/5) के सन्दर्भ में यह कहा जाता है कि ये तप की कठोर साधना करते थे। इस प्रकार के और भी अनेक सन्दर्भ उपस्थित किए जा सकते अत: वह रुद्र भी थे। वैदिक साहित्य में रुद्र, सर्व, पाशुपति, ईश, महेश्वर, Jain Education International For Private & Personal Use Only 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