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श्वेताम्बर मूलसंघ एवं माथुर संघ : एक विमर्श
श्री वृक्षमूल गण, पुत्रागवृक्षमूलगण, कनकोपलसम्भूतवृक्षमूलगण आदि से प्राप्त पूर्व में उल्लेखित तीन अभिलेखों को छोड़कर अन्यत्र कहीं भी अनेक गणों में विभक्त हुई, फिर भी सबने अपने साथ मूलगण शब्द कायम श्वे० माथुर संघ का उल्लेख नहीं मिलता है, लेकिन उपरोक्त तीनों रखा। जब इन विभिन्न मूल गणों को कोई एक संयुक्त नाम देने का प्रश्न अभिलेखों के आधार पर हम यह मानने के लिए विवश हैं कि ग्यारहवीं
आया तो उन्हें मूलसंघ कहा गया। कई गणों द्वारा परवर्तीकाल में संघ बारहवीं शताब्दी में श्वे० माथुरसंघ का अस्तित्व था। यद्यपि यह बात भिन्न नाम धारण करने के अनेक प्रमाण अभिलेखों में उपलब्ध हैं। पुन: यापनीय है कि यह माथुरसंघ श्वेताम्बर मुनियों का कोई संगठन न होकर मथुरा ग्रन्थों के साथ लगा हुआ 'मूल' विशेषण-जैसे मूलाचार, मूलाराधना आदि के श्वेताम्बर श्रावकों का एक संगठन था और यही कारण है कि श्वे० माथुर भी इसी तथ्य का सूचक है कि 'मूलसंघ' शब्द का सम्बन्ध यापनीयों से संघ के अभिलेख मथुरा से अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध नहीं हुए। यदि रहा है। अत: नोणमंगल की ताम्रपट्टिकाओं में उल्लेखित मूलसंघ-यापनीय श्वेताम्बर माथुर संघ मुनियों का कोई संगठन होता तो इसका उल्लेख मथुरा परम्परा का ही पूर्व रूप है। उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ की यह धारा जब से अन्यत्र अभिलेखों और साहित्यिक स्त्रोतों से मिलना चाहिए था। पुनः पहले दक्षिण भारत में पहुँची तो मूलसंघ के नाम से अभिहित हुई और इन तीनों अभिलेखों में मुनि और आचार्य के नामों के उल्लेख का अभाव उसके लगभग १०० वर्ष पश्चात् इसे यापनीय नाम मिला। हम यह भी यही सूचित करता है कि यह श्रावकों का संघ था। देखते हैं कि उसे यापनीय नाम मिलते ही अभिलेखों से मूलसंघ नाम जहाँ तक दिगम्बर परम्परा का प्रश्न है उसमें माथुरसंघ नामक लुप्त हो जाता है और लगभग चार सौ पचास वर्षों तक हमें मूलसंघ का एक मुनि संघ था और उसकी उत्पत्ति विक्रम संवत् ९५३ में आचार्य कहीं कोई भी उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है। नोणमंगल की ई० सन् ४२५ रामसेन से मानी जाती है। माथुरसंघ का साहित्यिक उल्लेख इन्द्रनंदी के की ताम्र पट्टिकाओं के पश्चात् कोन्नूर के ई० सन् ८६० के अभिलेख में श्रुतावतार और देवसेन के दर्शनसार में मिलता है। इन्द्रनन्दी ने इस संघ पुन: मूलसंघ का उल्लेख देशीयगण के साथ मिलता है। ज्ञातव्य है कि की गणना जैनाभासों में की है और निष्पिच्छिक के रूप में इसका उल्लेख इस अभिलेख में मूलसंघ के साथ देशीयगण और पुस्तकंगच्छ का उल्लेख किया है। देवसेन ने भी दर्शनसार में इसे निष्पिच्छिक बताया है। यद्यपि है किन्तु कुन्दकुन्दान्वय का उल्लेख नहीं है। ज्ञातव्य है कि पहले यह इसकी उत्पत्ति विक्रम सं०९५३ में बताई गई है किन्तु उसका सर्वप्रथम लेख ताम्रपट्टिका पर था बाद में १२वीं शती में इसमें कुछ अंश जोड़कर साहित्यिक उल्लेख अमितगति के सुभाषितरत्नसंदोह में मिलता है जो पत्थर पर अंकित करवाया गया; इस जुड़े हुए अंश में ही कुन्दकुन्दान्वय कि मुंज के शासन काल में (विक्रम १०५०) में लिखा गया। का उल्लेख है। इसके दो सौ वर्ष पश्चात् से यापनीयगण और द्राविड़ आदि सुभाषितरत्नसंदोह के अतिरिक्त वर्धमाननीति, धर्मपरीक्षा, पंचसंग्रह, अन्य गण सभी अपने को मूलसंघीय कहते प्रतीत होते हैं। तत्त्वभावना, उपासकाचार आदि भी इनकी कृतियां है। अभिलेखीय स्त्रोतों
इतना निश्चित है कि मूलसंघ के साथ कुन्दकुन्दान्वय सम्बन्ध की दृष्टि से इस संघ का सर्वप्रथम उल्लेख विक्रम सं. ११६६ में अथुर्ना भी परवर्ती काल में जुड़ा है यद्यपि कुन्दकुन्दान्वय का सर्वप्रथम के अभिलेख में मिलता है। दूसरा अभिलेखीय उल्लेख १२२६ के अभिलेखीय उल्लेख ई० सन् ७९७ और ८०२ में मिलता है १२, किन्तु बिजोलिया के मन्दिर का है, इसके बाद के अनेक अभिलेख इस संघ इन दोनों लेखों में पुस्तकगच्छ और मूलसंघ का उल्लेख नहीं है। आश्चर्य के मिलते हैं। ज्ञातव्य है कि अपनी उत्पत्ति के कुछ ही वर्ष बाद यह संघ है कि साहित्यिक स्त्रोतों में तो दशवीं शती के पूर्व मूलसंघ और काष्ठासंघ का एक अंग बन गया और परवर्ती उल्लेख काष्ठासंघ की एक कुन्दकुन्दान्वय का कहीं कोई उल्लेख नहीं है। वस्तुत: कुन्दकुन्द शुद्ध शाखा माथुरगच्छ के रूप में मिलते हैं। आचार के प्रतिपादक एवं प्रभावशाली आचार्य थे और मूलसंघ महावीर
यदि हम काल की दृष्टि से विचार करें तो यह पाते हैं कि श्वे. की प्राचीन मूलधारा का सूचक था, अत: परवर्तीकाल में सभी अचेल माथुरसंघ और दिगम्बर माथुरसंघ की उत्पत्ति लगभग समकालीन है। परम्पराओं ने उससे अपना सम्बन्ध जोड़ना उचित समझा। मात्र उत्तर भारत क्योंकि श्वे० माथुरसंघ के उल्लेख भी ११-१२वीं शताब्दी में ही मिलते का काष्ठासंघ और उसका माथुरगच्छ ऐसा था जिसने अपने को मूलसंघ हैं। यद्यपि श्वेताम्बर परम्परा में खरतर, तपा, अचंल आदि महत्त्वपूर्ण गच्छों एवं कुन्दकुन्दान्वय से जोड़ने का कभी प्रयास नहीं किया। इसका एक का उद्भव काल भी यही है, फिर भी इन गच्छों में माथुर संघ का स्पष्ट कारण यह भी हो सकता है कि काष्ठासंघ मुख्यत: उत्तर भारत से सम्बद्ध अभाव होने से हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि माथुर संघ श्वे० जैन था और इस क्षेत्र में १२-१३वीं शती तक कुन्दकुन्दान्वय का प्रभाव मुनियों का सगठन न होकर मथुरा निवासी श्वे० श्रावकों का एक संगठन अधिक नहीं था। वस्तुत: मूलसंघ मात्र एक नाम था जिसका उपयोग ९- था। आश्चर्य यह भी है कि इन अभिलेखों में श्वे० माथुरसंघ का उल्लेख १०वीं शती से दक्षिण भारत की अचेल परम्परा की सभी शाखायें करने होते हुए भी कहीं किसी मुनि या आर्या का नामोल्लेख नहीं है। इस आधार लगी थीं। शायद उत्तर भारत की सचेल परम्परा भी अपनी मौलिकता पर हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि श्वे० माथुरसंघ मथुरा के श्रावकों सूचित करने हेतु इस विरुद् का प्रयोग करने लगी हो।
का ही एक संगठन था। श्वेताम्बरों में आज भी नगर के नाम के साथ संघ शब्द जोड़कर उस नगर के श्रावकों को उसमें समाहित किया जाता है।
अतः निष्कर्ष यही है कि श्वे० माथुरसंघ मथुरा के श्रावकों का संघ था माथुरसंघ भी मुख्यत: दिगम्बर परम्परा का ही संघ है। मथुरा और उसका मुनि परम्परा अथवा उनके गच्छों से कोई सम्बन्ध नहीं था।
माथुर संघ
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