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श्रवणबेलगोला के अभिलेखों में दान परम्परा
शुद्ध धर्म का अवकाश न होने से धर्म में दान की प्रधानता है। दान देना मंगल माना जाता था । याचक को दान देकर दाता विभिन्न प्रकार के सुखों की अनुभूति करता था । अभिलेखों के वर्ण्य विषय को देखते हुए यह माना जा सकता है कि दान देने के कई प्रयोजन होते थे । कभी मुनि राजा या साधारण व्यक्ति को समाज के कल्याण हेतु दान देने के लिए कहता था तथा कभी लोग अपने पूर्वजों की स्मृति में बस्ति या निषद्या का निर्माण करवाते थे । किन्तु प्रसन्न मन से दान देना विशेष महत्त्वपूर्ण माना जाता है ।
साधारण रूप में स्वयं अपने और दूसरे के उपकार के लिए अपनी वस्तु का त्याग करना दान है। राजवार्तिक में भी इसी बात को कहा गया है। किन्तु धवला के अनुसार रत्नत्रय से युक्त जीवों के लिए अपने वित्त का त्याग करने या रत्नत्रय के योग्य साधनों को प्रदत्त करने की इच्छा का नाम दान है। माचायों ने अपनी कृतियों में दान के विभिन्न भेदों की चर्चा की है। सर्वासिद्धि में आहारदान, अभयदान तथा ज्ञानदान नामक तीन दानों की चर्चा की है जबकि सागारधर्मामृत के अनुसार साविक, राजस तामस आदि तीन प्रकार के दान होते हैं । किन्तु मुख्य रूप से दान को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है— अलौकिक व लौकिक । अलौकिक दान साधुओं को दिया जाता है, जो चार प्रकार का है—आहार, औषध, ज्ञान व अभय तथा लौकिक दान साधारण व्यक्तियों को दिया जाता है । जैसे-समदत्ति, करुणादत्ति, औषधालय, स्कूल, प्याऊ आदि खुलवाना ।
श्रवणबेलगोला के लगभग दो सौ अभिलेखों में दान परम्परा के उल्लेख मिलते हैं । इनमें मुख्य रूप से ग्रामदान, भूमिदान, द्रव्पदान, वस्त व मन्दिरों का निर्माण व जीर्णोद्धार, मूर्ति दान, निपया निर्माण, आहार दान, तालाब, उद्यान, पट्टशाला (वाचनालय), चैत्यालय, स्तम्भ तथा परकोटा आदि का निर्माण जैसे दान वर्णित हैं। इन दानों को अलौकिक व लौकिक नामक दो भागों में विभक्त किया जाता है -
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अलौकिक दान – जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि अलौकिक दान साधुओं को दिया जाता है । क्योंकि लौकिक दान में जिन वस्तुओं की गणना की गई है, जौनाचार में उन वस्तुओं को मुनियों के ग्रहण करने योग्य नहीं बतलाया गया है | श्रवणबेलगोला के अभिलेखों में अलौकिक दान में से केवल आहार दान का उल्लेख मिलता है ।
आहार दान - आहार दान का अत्यन्त महत्त्व है। इसके महत्त्व का उल्लेख करते हुए पंचविंशतिका' में बतलाया गया है। कि जैसे जल निश्चय करके रुधिर को धो देता है, वैसे ही गृहरहित अतिथियों का प्रतिपूजन करना अर्थात् नवधाभक्तिपूर्वक आहारदान करना भी निश्वय करके गृहकार्यों से संचित हुए पाप को नष्ट करता है । श्रवणबेलगोला के अभिलेखों में भूमि रहन से मुक्त करने पर तथा कष्टों के परिहार होने पर आहारदान की घोषणा करने का वर्णन मिलता है। एक अभिलेख के अनुसार कम्भिय्य ने घोषणा की
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परानुग्रहबुद्ध्या स्वस्यातिसर्जनं दानम् (राजवार्तिक - ६ / १२ / ४ / ५२२)
धवला - १३ / ५, ५-१३७/३८६ / १२ /
सर्वार्थसिद्धि - ६ / २४ / ३३८ / ११ ।
४. सागारधर्मामृत - ५ / ४७
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५. जैन शिलालेख संग्रह, भाग एक, लेख संख्या - ६६ १०१, ४६७
६. पंचविंशतिका - ७ /१३ ।
श्री जगबीर कौशिक
ॐ० शि० ले० सं०, भाग एक, ले० सं० ६६ ।
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आचारत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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