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दशवेकालिक नियुक्तिकार ने कहा है कि जिसका मन सम होता है, वह समन है। जिसके लिये कोई भी जीव न द्वेषी होता है, न रागी, वह अपनी सम मनःस्थिति के कारण समन कहलाता है । वह सोचता है जैसे मुझे दुःख अप्रिय है उसी प्रकार सर्व जीवों को दुःख अप्रिय ही है । ऐसी समत्व दृष्टि से जो साधक किसी भी प्राणी को दुःख नहीं पहुँचाता वह अपनी समगति के कारण समन कहलाता है ।"
इस प्रकार जो साधक अनासक्त होता है, कामविरक्त होता है, हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह की विकृतियों से रहित होता है, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग-द्वेष इत्यादि जितने भी कर्मदान और आत्मा के पतन के हेतु हैं सबसे निवृत्त रहता है । इसी प्रकार जो इन्द्रियविजेता है, मोक्षमार्ग का पथिक है मोह ममत्व से पर है वह समन कहलाता है ।
(३) शमन किसे कहते हैं - शमन का अर्थ हैअपनी वृत्तियों को शान्त रखना । वृत्तियाँ शुभ भी होती हैं और अशुभ भी शुभ वृत्तियों से साधक का उत्थान होता है और अशुभ से पतन ।
शमन का सम्बन्ध उपशम से भी है । जो छोटेमोटे पापों का सर्वथा शमन करने वाला है, वह पाप का क्षय होने के कारण शमन कहलाता है ।
शान्त पुरुष शम के द्वारा मंगल पुरुषार्थ का आचरण करते हैं । फलतः वे मुनि शम के द्वारा ही स्वर्ग में जाते हैं । इस प्रकार कई ऋषि-मुनियों ने शम को परम मोक्ष- साधन माना है । श्रमण की दिनचर्या
(१) श्रमण - सर्व दुःखों से मुक्त होने का प्रयत्न
करे ।
चतुर्थखण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम
(२) श्रमण - पंच महाव्रतों को आत्महित के लिए विशुद्ध भाव से स्वीकार करे ।
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(३) श्रमण - विनय का प्रयोग आचार प्राप्ति हेतु या कर्म निर्जरा हेतु करे ।
(४) श्रमण - केवल जीवनयापन के लिए भिक्षा ग्रहग करे ।
(५) श्रमण - वस्त्र, पात्र या उपकरण का ग्रहण और उपयोग जीवननिर्वाह के लिए करे ।
(६) श्रमण - उपसर्ग - परीषह आदि को कर्म निर्जरा हेतु धर्म समझकर सहन करे ।
(७) श्रमण - चित्त निरोध के लिए, ज्ञानप्राप्ति के लिए, स्वात्मा में संलग्न रहने के लिये और दूसरों को धर्म में स्थित करने के लिए अध्ययन करे ।
(८) श्रमण - तप और त्याग न तो सुख-सुविधा के लिए करे न तो परलोक की समृद्धि हेतु करे न तो अपने मान-सम्मान या प्रतिष्ठा के लिये करे किंतु केवल आत्म-शुद्धि के लिये करे ।
(ह) श्रमण - अनुत्तर गुणों की संप्राप्ति हेतु गुरु को समर्पित होकर गुरु की आज्ञा में मोक्षमार्ग की आराधना करता रहे ।
(१०) श्रमण - हाथी जितना विस्तृत काय वाला हो या कुंवे जितना सूक्ष्म हो किन्तु सभी जीव जीना चाहते हैं, कोई भी मरना नहीं चाहता अतः भ्रमण प्राणी-वध का वर्जन करे ।
(११) श्रमण – असत्य सत्पुरुषों की दृष्टि में गहित है जिससे उभयलोक की हानि समझकर श्रमण उसका सर्वथा त्याग करे ।
(१२) श्रमण - अब्रह्मचर्य अधर्म का मूल है, अनर्थ की खान है, अतः नरक में ले जाने वाले दुराचारों से श्रमण सर्वथा दूर रहे |
श्रमण और अहिंसा
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जइ मम न पियं दुक्खं जाणिय एमेव सव्व जीवाणं । न हणइ न हणावेइ य सममणइ तेण सो समणो ॥
- दशकालिक नियुक्ति गा. १५४
भगवान् महावीर ने कहा कि मेरी वाणी में
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