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श्रमण संस्कृति का विराट् दृष्टिकोण १३ व्यवस्था के बाद वानप्रस्थ तथा संन्यास आश्रम की व्यवस्था की गई । परिणाम स्वरूप दोनों शब्दों में एकत्व स्थापित हुआ 14
७. जहाँ ऋग्वेद में देवता को स्मृतियाँ हैं, वहीं उपनिषदों में मानव मन के भीतर उठने वाले प्रश्नों पर चर्चा की गई है । ऐसा लगता है कि जब वैदिक परम्परा तथा श्रमण परम्परा के मनोषी निकट बैठकर चर्चा करते थे, अध्यात्म प्रधान प्रश्नों का समाधान खोजते थे, उस समय का साहित्य उपनिषद् हैं । वेद विहित ( हिंसापूर्ण यज्ञों ) को उपनिषद काल में आत्म परक बना लिया गया । "
८. राजा जनक (विदेह ) की सभा में ऋषि, ब्राह्मण कुमार-सब आत्म-विद्या का उपदेश लेने सम्मिलित होते थे । महाराज जनक क्षत्रिय थे । अनुमान तो यह है कि जनक नाम नहीं था । वस्तुतः जनक का शब्दार्थ पिता होता है । जैन आगम उत्तराध्ययन में विदेहराज राजर्षि का उल्लेख है । उसमें जो संवाद ब्राह्मण वेश में उपस्थित इन्द्र तथा नमि में हुआ है, उससे लगता है कि नमि ही जनक था या नमि के वंश में हो जनक था । यह शोध का विषय है ।
९. स्वर्गीय संत बिनोबाजी ने अपने द्वारा व्याख्यायित "विष्णु सहस्रनाम" पुस्तक के अन्त में "अविरोध साधक" शीर्षक से यह प्रतिपादित किया है कि विष्णु के १००० नाम में " वर्धमान महावीर " का नाम भी है ( पृष्ठ ३८९ ) अनुमान है इन १००० नामों में विष्णु का नाम एक "जिन" भी है।
१०. योगवाशिष्ठ ( संस्कृति संस्थान, ख्वाजा कुतुब वरेली से प्रकाशित ) प्रथम खण्ड के " वैराग्य प्रकरण" ( १५ वां सर्ग ) में एक श्लोक है, जिसका तात्पर्य है कि मैं राम नहीं हूँ, न मेरी कोई इच्छा ( वान्छा ) है । मैं "जिन' की तरह अपनी आत्मा में शान्ति चाहता हूँ ॥
नाहं रामो न मे वाञ्छा: न च मे भावेषु मनः । शांतिमास्थितुमिच्छामि, स्वात्मन्येव जिनो यथा ॥ ६ ॥
तात्पर्य यह है कि श्रमण परम्परा इस देश में प्राग् ऐतिहासिक काल से विद्यमान थी । उनमें विभिन्न युगों में तीर्थंकर अवतरित हुए है जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है । पार्श्वनाथ और वर्धमान महावीर की ऐतिहासिकता तो विवाद से परे है | श्रमण परम्परा का जो साहित्य आज उपलब्ध है, उसके लिहाज से यह बिना संकोच कहा जा सकता है कि श्रमण संस्कृति का दृष्टिकोण सदैव विशाल रहा है। तीर्थंकर महावीर के युग में वैदिक परम्परा में संस्कृत का प्राबल्य था । इसे उच्च वर्ग में सोमित कर दिया गया था । "स्त्रीशूदी नाधीयाताम् " -स्त्री तथा शुद्धों को वेद के पठन का अधिकार नहीं है । जहाँ ऐसी स्थिति थी, वहाँ तीर्थंकर महावीर ने तत्कालीन प्रचलित जन भाषा मगध तथा निकटवर्ती स्थानों की जनबोली का मिश्र रूप " अर्द्धमागधी" अपना कर, जन सामान्य तक अपने सन्देश को पहुँचाया । इस प्रकार से भाषा के क्षेत्र में एक ऐसी क्रांति हुई जिससे संस्कृत का गर्व समाप्त हो गया । केवल इतना ही नहीं, तीर्थंकर महावीर संघ के द्वार अभिजात्य वर्ग से लेकर निम्न तथा निम्नतम वर्ग के व्यक्ति के लिये खुला था । यही कारण है कि उनके संघ में चांडाल तक मुनि के रूप में दीक्षित हुए । वर्ग व्यक्ति के लिये थी । उस समय संघ में समाज का प्रत्येक तबका
उनको वही उच्च स्थिति प्राप्त थी, जो अभिजात्य सम्मिलत होता तथा उनके उपदेशों को आत्मसात्
८. वही, पृ० ९, १० ।
९. उपनिषदों की भूमिका, डॉ० राधाकृष्णन, पृ० ४९ ।
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