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________________ सर्वस्य जगतः पतिरीश्वर आसीत् । "" प्राक् समवर्तत मायाध्यक्षात् सिसृक्षोः परमात्मनः सकाशात् समजायत । तैत्तिरीय संहिता में हिरण्यगर्भ का अर्थ प्रजापति किया गया है। अतः आचार्य सायण उसी के अनुसार हिरण्यगर्भ की व्युत्पति करते हैं— 'हिरण्मय अण्डे का गर्भभूत' अथवा 'जिसके उदर में हिरण्मय अण्डा गर्भ की तरह रहता है'। वह हिरण्यगर्भ प्रपञ्च की उत्पत्ति से पहले सृष्टिरचना के इच्छुक परमात्मा से उत्पन्न हुआ। इस प्रकार वैदिक दृष्टि से हिरण्यगर्भ सष्टि का आदिपुरुष या युगपुरुष प्रतीत होता है। जैनदृष्टि जैन मान्यता के अनुसार भगवान् ऋषभ 'हिरण्यगर्भ' नाम से संबोधित किए गए हैं। हरिवंश पुराण में कहा गया है कि भगवान् ऋषभ के गर्भ में स्थित होने के समय पर्याप्त रूप से हिरण्य (सुवर्ण) की वर्षा हुई, इस कारण देवताओं ने हिरण्यगर्भ कहकर उनकी स्तुति की हिरण्यवृष्टिरिष्टाभूद् गर्भस्थेऽपि यतस्त्वयि । हिरण्यगर्भ इत्युच्चंगवर्णनोंयसे त्वतः ॥' इसी बात को विक्रम की प्रथम शताब्दी के आचार्य विमलसूरि ने अपने प्राकृत भाषा के पउमचरिय' नामक ग्रन्थ में वर्णन किया है विक्रम की नवीं शताब्दी के जैनाचार्य जिनसेन ने महापुराण में ऋषभदेव के चरित्र का वर्णन किया है। वे कहते हैं- "हे प्रभो आप हिरण्यगर्भ हैं, मानो इस बात को समस्त संसार को समझाने के लिए ही कुबेर ने आपके गर्भ में आते ही सुवर्ण की वृष्टि की""संवा हिरण्मयी वृष्टिः धनेशेन निपातिता । विभोहिरण्यगर्भत्वमिव योषयितुं जगत् ॥ "" पं० आशाघर के जिनसहस्रनाम ( ११ ) की श्रुतसागरी टीका में हिरण्यगर्भ का अर्थ बताते हुए कहा गया है- गर्भागमनात् पूर्वमपि षण्मासान् रत्नैरुपलक्षिता सुवर्णवृष्टिर्भवति तेन हिरण्यगर्भः" अर्थात् कृषभदेव के गर्भ में आने से छह महीने पूर्व रत्नों के साथ सुवर्ण की वृष्टि होने लगी, अत: उन्हें हिरण्यगर्भ कहते हैं । 1 आचार्य नेमिचन्द्र ने अपने 'प्रतिष्ठा तिलक' में तीर्थंकर ऋषभदेव की माता की वंदना करते हुए कहा है--"अपने पुण्य से उत्पन्न रत्नसमूह की वृष्टि से संसार को तृप्त करने वाले हिरण्यगर्भ को अपने गर्भ में धारण करने वाली आपकी कौन वंदना नहीं करता" गट्टियस्स जस्स उ हिरण्णबुट्ठी सकंचणा पडिया । तेणं हिरण्णगन्भो जयम्मि उवगिज्जए उसभो ॥' "स्वपुण्योद्भूतरस्गौष्टितपितभूततम् । हिरण्यगर्भ गर्भे त्वां दधानां को न वन्दते ॥ "५ आदिपुराण और अभिधानचिन्तामणि में तीर्थंकर ऋषभ के अनेक नामों में हिरण्यगर्म का उल्लेख है "हिरण्यगर्भो भगवान् वृषभो वृषभध्वजः । परमेष्ठी परं तवं परमात्मात्मभूरपि ॥ "हिरण्यगर्भो लोकेशो नाभिपद्यात्मभूरपि।" इस प्रसंग में एक बात और ध्यान देने योग्य है। तीर्थङ्कर ऋषभ के शरीर का वर्ण स्वर्ण के समान पीत था। इसी कारण 'जनसहस्रनाम' में उन्हें हिरण्यवर्ण, स्वर्णाभ तथा शातकुम्भनिप्रभ कहा गया है १. ऋग्वेद १०/१२१-१ पर सायण का भाष्य । २. हरिवंशपुराण ८ / २०६ ३. पउमचरियं, ३/६८ ४. महापुराण, १२ / ६५ ५. नेमिचन्द्र, प्रतिष्ठा तिलक ८ / २ ६. आदिपुराण, २४ / ३३ ७. अभिधान चिन्तामणि, २ / १२७ १०६ Jain Education International आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.212039
Book TitleShraman Sanskruti ka Yuga purush Hiranyagarbh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherZ_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
Publication Year1987
Total Pages3
LanguageHindi
ClassificationArticle & Tirthankar
File Size392 KB
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