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'शील' जीवन की सुन्दर उपासना है / ६५
बड़ा है वैसे ही व्रतों में ब्रह्मचर्य का व्रत बड़ा है । इसकी प्राराधना से सभी व्रतों की अराधना हो जाती है। तप, विनय, संयम, क्षमा, निलभता तथा गुप्ति की साधना हो जाती है । मचमुच, यह व्रतों का सरताज है ।
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पाँचों इन्द्रियों का निग्रह तथा इनका आत्मा में रमण करना ही ब्रह्मचर्य है। जैनेन्द्रसिद्धान्त कोश, भाग ३, पृष्ठ १९९ पर आत्मा के सद्भाव में परिणति के लिए आचरण 'ब्रह्मचर्य' कहलाता है, यह उल्लिखित है । भगवती आराधना, मूल, ८७८ पर देहासक्ति से मुक्त व्यक्ति की जो चर्या है वही ब्रह्मचर्य है, ऐसा स्वीकारा है । वस्तुतः 'ब्रह्म' के तीन मुख्य अर्थ है- वीर्य प्रारमा विद्या 'चर्यः शब्द भी तीन अर्थ कहता है-रक्षण, रमण, अध्ययन । इस प्रकार ब्रह्मचर्य का अर्थ हुआ वीर्यरक्षण, आत्मरमण और विद्याध्ययन । वीर्यरक्षा के लिए स्पृश्य के अतिरिक्त दृश्य, श्रव्य, बाय और प्राणीय पदार्थों में विवेकपूर्ण संयम करना या कामोत्तेजक पदार्थों को छोड़ना ब्रह्मचारी के लिए लाजिमी है। वस्तुतः ब्रह्मचर्य उत्तम खाद है जिससे सद्गुणों की खेती लहलहाने लगती है 'मनुस्मृति' में ब्रह्मचारी अर्थात् शीलवान् के लिए कई बातों का परहेज बताया है, यया---
वर्जयेन्मधु मासं च गन्धं माल्यं रसान् स्त्रियः । अभ्यङ्गमञ्जनं चाक्ष्णो रुपानच्छत्रधारणम् । शुक्तानि यानि सर्वाणि प्राणिनां चैव हिंसनम् । कामं क्रोधच लोभं च नर्तनं गीतवादनम् । द्यूतञ्च जनवादञ्च परीवादं तथानृतम् । स्त्रीणाम्प्रेक्षणालम्भमुपघातं
परस्य च ॥
अर्थात् ब्रह्मचारी मद्य, मांस, सुगन्धित पदार्थ, माला, स्निग्ध रस का अत्यधिक सेवन, स्त्रीसंग, तैल आदि की मालिश या पीठी आदि लगाने, आँखों में अञ्जन ( काजल ) डालने, पैरों में जूते पहनने, छत्र धारण करने सभी प्रकार के अश्लील दृश्य अश्लील गाने-बजाने या नाचने का त्याग करे । इसी प्रकार काम, क्रोध, लोभ, प्राणियों की हिंसा, जुना, निन्दाचुगली, असत्य, स्त्रियों की ओर विकारी दृष्टि से देखने, पालिंगन करने या टक्कर लगाकर चलने का भी त्याग करे ।
श्राचायों ने 'शील' को दो रूपों में विभक्त किया है— (i) पूर्ण शीलवती (ब्रह्मचारी) (ii) मर्यादित शीलव्रती ( ब्रह्मचर्याणुव्रती ) । साधु-साध्वी पूर्ण शीलव्रती होते हैं। वह मन-वचनकाय से स्वयं पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं औरों को ब्रह्मचर्य पालन की प्रेरणा देते हैं, प्रोत्साहन देते हैं । श्रावकों में दो प्रकार के शीलव्रती कहे गए हैं । कई श्रावक उम्र ढल जाने पर सपत्नीक अथवा पति या पत्नी दोनों में से किसी एक के देहान्त हो जाने पर स्वयं गृहस्थ जीवन में रहकर पूर्ण ब्रह्मचर्यं (शील) पालन करने की प्रतिज्ञा लेते हैं। कई कुमारिका बहिनें या कुंवारे भाई भी गृहस्थ जीवन में प्राजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत लेते हैं और सेवाकार्य में अपना जीवन प्रतप्रोत कर देते हैं । पर ऐसे व्यक्तियों की श्राज संख्या विरल है । गृहस्थ जीवन में शीलवती बनने के लिए स्वपत्नी संतोष और परस्त्री-विरमण व्रत वचन और काया से अथवा काया से पालने की प्रतिज्ञा लेनी पड़ती है । शील कुल की शोभा बढ़ाता है ।
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धम्मो दीयो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है
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