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________________ २२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड यही बात दूरदर्शन के बारे में भी है। इनके दो सर्वाधिक लोकप्रिय कार्यक्रम हैं- 'चित्रहार' व 'फूल खिले हैं गुलशन गुलशन' ये दोनों ही कार्यक्रम पूर्णतः फिल्मों पर आश्रित है। शेष कार्यक्रम प्रस्तुत करना दूरदर्शन वालों की विवशता भले ही हो, दर्शक उनको देखकर न तो बोर होना चाहते हैं, न बिजली और समय की बर्बादी करना । दूरदर्शन वाले भी सत्ताधीशों की छवि उभारने के प्रयत्न में इतने ज्यादा दूबे रहते हैं कि शेष बातों की और उनका ध्यान ही नहीं जाता। वैसे भी साइट के अल्पकालीन अनुभव के अतिरिक्त दूरदर्शन अब तक बहुत छोटे से वर्ग तक पहुँच पाया है। हम अब रंगीन टेलिभिजन प्रसार के लिए तो उत्सुक हैं पर समाज निर्माण की ओर इसे उन्मुख करने की कोई चिन्ता आभासित नहीं रही है। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि हमारे देश में इन दोनों ही माध्यमों पर सरकार का पूर्ण नियन्त्रण व एकाधिकार है। कुशल और सुचिन्तित उपयोग के अभाव में ये माध्यम अपनी वांछित भुमिका में प्रयुक्त नहीं किये जा सके हैं, जनता को शिक्षित करना तो दूर रहा, ये साधन सरकारी नीतियों तक का सही प्रचार नहीं कर पाये हैं। यों, रेडियो हमारे यहां खूब लोकप्रिय हुआ है, विशेषतः ट्रांजिस्टर कान्ति के बाद से और नव-यनिक वर्ग तक टेलीविजन भी पहुँच ही गया है, परन्तु जो कुछ इन दोनों ने सिखाया है उसको देखकर तो यही कहना पड़ता है कि अच्छा होता अगर हमारे यहाँ ये दोनों ही नहीं होते, तब कम से कम हमारे बच्चे 'आज मैं जवान हो गई हूँ', 'मुझको ठण्ड लग रही है, मुझसे दूर तो न जा', 'हम तुम एक कमरे में बन्द हों', 'किवड़िया न बड़काना' जैसे भौंडे गीत तो न अलापते । भारत जैसे अशिक्षित- बहुल देश में संचार का तीसरा महत्त्वपूर्ण साधन है - सिनेमा । इसके एक अंश पर सरकार का लगभग पूरा नियन्त्रण है और दूसरे पर अमीर व्यापारियों का । वृत्तचित्र ( डाक्यूमेण्ट्री ) निर्माण लगभग पूरी तरह सरकार के हाथों में है, उसका प्रदर्शन भी वह अनिवार्यतः सिनेमाघरों में करवाती है परन्तु अपने नीरस प्रस्तुतिकरण के कारण यह भी दर्शकों को आकृष्ट व प्रभावित करने में असमर्थ हैं। इसके अतिरिक्त इनकी वितरण व्यवस्था भी दोषपूर्ण है । इनका समय पर प्रदर्शन नहीं हो पाता है । परिणाम यह होता है कि जब चीन भारत पर हमला करता है तो सिनेमाघर में हिन्दी चीनी भाई-भाई' के स्वर गूंजते हैं, जब परिवार नियोजन वाले हम दो हमारे दो की बात कहने लगते हैं तो सिनेमा में 'दो या तीन बच्चे' की बात कही जा रही होती हैं। कस्बों के सिनेमाघर प्रायः वृत्तचित्र दिखाते ही नहीं हैं और जन सम्पर्क विभाग जैसी सरकारी एजेन्सियाँ इनको अलमारी में बन्द रख सन्तुष्ट हो लेती हैं । जहां तक कथाचित्रों का प्रश्न है, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ये व्यावसायिक निर्माताओं की देन हैं और इनके निर्माण का उद्देश्य समाज सुधार या शिक्षा प्रसार न होकर महज मुनाफा कमाना है। इसके अतिरिक्त, यह भी याद रखना है कि फिल्मों की अर्थव्यवस्था बहुत हद तक काले धन पर आधारित है । और जो लोग इस व्यवसाय से जुड़े हैं उनका नैतिकता आदि शब्दों में जरा कम ही विश्वास है। परिणाम स्पष्ट है, हमारी फिल्में न किन्हीं मूल्यों का निर्देशन करती है न किन्हीं आदर्शों का प्रचार । इनमें तस्कर व्यापारी ही पूर्ण पुरुष होता है और वेश्या ही पूर्ण नारी । अपराधियों के चरित्र को कुछ इस तरह से ग्लेमराइज़ किया जाता है कि वे घृणा या दया के पात्र लगने की बजाय अनुकरणीय लगने लगते हैं। शायद यही कारण है कि फिल्म देखकर अपराध करने की घटनाएं प्रायः घटित होती हैं । कहने को हमारे यहाँ एक सेन्सर बोर्ड भी है पर उसकी अपनी सीमाएँ हैं। प्रभावशाली लोगों की फिल्मों में काट-छांट करने की ताकत उसमें नहीं है । उसकी भूमिका महज यह है कि वह फिल्मों में पुलिस के सिपाही के रिश्वतखोर रूप के चित्रण को रोकता है, चुम्बन के प्रदर्शन पर रोक लगाता है। यह बात अलग है कि चालाक निर्देशक उसकी आँखों में धूल झोंककर अधिक अश्लील ढंग से संभोग का भी विस्तृत चित्रण कर जाता है। यदि भूले-भटके कोई निर्माता यथार्थवादी, आदर्शवादी, उद्देश्यपूर्ण फिल्म बना भी डालता है तो वह इन रंगीन, विलासितापरक फिल्मों के सामने टिक नहीं पाती हैं । व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा के रहते उसे थियेटर नहीं मिल पाता, कोई सरकारी समर्थन नहीं मिलता और इस तरह अन्य लोगों का मनोबल भी टूटता जाता है। कुल मिलाकर स्थिति यह है कि हमारी फिल्में अगर कोई शिक्षा दे रही हैं तो वह हिंसा, नग्नता, मूल्यहीनता, विलासिता, बेईमानी, अपराध आदि की शिक्षा है । यह तो हुई रेडियो, टेलीविजन, सिनेमा की बात, जिन पर पूर्णतः या अंशत: सरकारी नियन्त्रण है। आइये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.212004
Book TitleShiksha aur Sanchar Sadhano ki Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDurgaprasad Agarwal
PublisherZ_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf
Publication Year1982
Total Pages5
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size552 KB
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