________________
अत: आवश्यकता है आत्मावलोकन, आत्मचिन्तन और भाव निष्ठा : आत्मविश्लेषण की। अध्यापकीय सेवा के इस परिधान के
__इयान पियर्सन जैसे लोग वह घोषणा कर रहे हैं कि भविष्य तकाजे के अधीन इस तथ्य को हृदयंगम करने की कि अध्यापक टैक्नोलॉजी के हाथ में है. दसरी ओर आत्म हत्याओं की संख्या का मूल अर्थ केवल ले जाने वाला नहीं है, अधि लगा है उसमें,
[गा ह उसम, में वृद्धि, अध्यात्म की शरण में जाकर भावनात्मक और मानसिक
में तो जिसका अर्थ है किसी विशेष जगह ले जाने वाला, किसी
समस्याओं से निजात पाने की प्रवृति, प्रबन्धन में इमोशनल एवं अधिष्ठान तक पहुँचाने वाला, एक निश्चित लक्ष्य तक ले जाने
स्प्रिच्युल कोन्शियेन्स जैसी अवधारणाओं का पढ़ाया जाना, शिक्षा वाला और ले ही जाने वाला नहीं उसे सम्पन्न करने वाला,
एवं प्रबन्धन तक के पाठ्यक्रम में पतंजलि योगदर्शन के सैद्धान्तिक प्रतिष्ठित करने वाला, तदर्थ आवश्यकता है अध्यापक स्वयम्
एवं व्यावहारिक पक्षों के अध्ययन की अनुशंसा, साइबर दुकानों सम्पन्न हो, स्वयम् प्रतिष्ठित हो तभी नैतिक जवाबदेही की
के समानान्तर योग, नेचुरोपेथी, ताई ची और रेकी जैसे उपक्रम, सम्भावना की सिद्धि सम्भव है। इस दृष्टि से शिक्षक की विशेष
आध्यात्मिक संगीत और कैसेट के एक पृथक बाजार का निर्माण रूप से शिक्षार्थी के प्रति प्रमुखतया तीन नैतिक प्रतिबद्धताएँ है:
- टैक्नोलॉजी के समानान्तर ये समस्त प्रावधान इस तथ्य के वैचारिक निष्ठा :
द्योतक हैं कि आदमी की प्राथमिकता डिजिटल क्रान्ति नहीं है। नई तदर्थ शिक्षक को मात्र ज्ञान का संप्रेषक होना ही पर्याप्त नहीं टैक्नोलॉजी से व्युत्पन्न सुखबोध प्रत्येक रोग का इलाज नहीं है, है वरन् उसका प्रज्ञावान होना आवश्यक है। वह जो कुछ शिक्षार्थी आदमी की बुनियादी जरुरत भावनात्मक है। को देना चाहता है उसे उस विषय का पूर्ण निष्णात, पूर्ण ज्ञाता होना
गाँधी जी कहा करते थे कि शिक्षा का अर्थ मात्र अक्षर ज्ञान चाहिये, किन्तु प्रज्ञावान केवल बुद्धिमान व्यक्ति नहीं है। प्रज्ञावान
नहीं है, अक्षर ज्ञान से आशय मनुष्यत्व से भी नहीं है, मनुष्य का व्यक्ति वह है जो वस्तुओं, व्यक्तियों और घटनाओं आदि के तथ्यों
मनुष्यत्व सत्य, अहिंसा, प्रेम, दया, क्षमा, शौर्य आदि उच्च को उचित रूप में अध्ययन कर उनकी व्याख्या करने में सक्षम हो,
भावनाओं के साथ एक-रूप होने में है। शिक्षा के परिप्रेक्ष्य में जो अपने शिष्य के गूढ़ से गूढ, जटिल से जटिल प्रश्नों का अत्यन्त
भावनाओं की शुद्धि और उनका विकास शरीर के पोषण के ही धैर्य के साथ विधिवत समाधान प्रस्तुत करने में सक्षम हो, वह जिस
साथ संयुक्त होना चाहिये। भाव संशुद्धि और विकास की दृष्टि विषय का भी संस्पर्श करे उसे पराकाष्ठा तक पहुँचाने की सामर्थ्य
से शिक्षा के दायित्व के रूप में शिक्षा के मूल घटक परिवार की उसमें हो। आशय यह कि शिक्षक के व्यक्तित्व में ज्ञान का
महत्वपूर्ण भूमिका है क्योंकि कुटुम्ब में ही समाज सेवा का बीज गाम्भीर्य इतना सशक्त होना चाहिये कि विद्यार्थी श्रद्धावनत होने के
निहित है। पुन: इस दायित्व का निर्वहन शिक्षा की जवाबदेही है, के लिये विवश हो जाये। गीता के आठवें अध्याय में एक साथ
किन्तु प्रथम दृष्टया अत्यधिक आकर्षित प्रतीत होने वाली "ऑन अनेक प्रश्नों की बौछार और गीता के शिक्षक श्रीकृष्ण द्वारा
लाइन डायग्नोसिस" और "डिस्टेन्स लर्निंग' जैसी शैक्षिक अत्यन्त धैर्य के साथ दिये गये उत्तर उनकी ज्ञान-गरिमा की प्रतिष्ठा
अवधारणाओं से यह सम्भव नहीं है, क्योंकि शिक्षा सम्बन्धी ये के परिचायक हैं। ये उत्तर वस्तुत: शिक्षक की जवाबदेही के उस
अवधारणाएँ जीवन को देखने की मौलिक दृष्टि प्रदान करने में नैतिक पक्ष का प्रतिनिधित्व करते हैं कि जिसके पास देने को है,
नितान्त असमर्थ है। इनके दुष्प्रभाव ने शिक्षा में रुग्ण और वह देने के लिये विवश है, इस दृष्टि से शिक्षक-शिक्षार्थी सम्बन्ध माँ और बालक के सम्बन्ध के समकक्ष हैं जिसे गोपीनाथ कविराज
विक्षिप्त व्यक्तित्व को जन्म दिया है, जो हृदयहीन और भाव
शून्य है, जिसके पास मनुष्यता नहीं, करुणा नहीं, प्रेम का कोई ने महाभाव की संज्ञा से संज्ञापित किया है। यह सम्बन्ध वस्तुत: त्याग के स्तर का नहीं वरन् प्रेम के स्तर का है, क्योंकि त्याग में
झरना नहीं, प्राणों की कोई ऊर्जा नहीं, जो मात्र हिसाब लगाने तो द्वैत है, प्रेम में अद्वैत होता है।
वाली कम्प्यूटर मशीन के समान जीवन का बोझा उठाने में अपना
अभ्युदय और निःश्रेयस स्वीकार कर स्वयम् को धन्य समझता इस प्रकार प्रेमाधारित वैचारिक निष्ठा ही नैतिक जवाबदेही
है। इस दृष्टि से अपने विद्यार्थियों के प्रति शिक्षक की भावनात्मक का पर्याय हो सकती है और यह मात्र अध्यापन की
प्रतिबद्धता का विशेष महत्व है, तदर्थ आवश्यकता है : औपचारिकता से संभव नहीं होगा, स्वयम गहराई में जाना होगा, अपने शिक्षार्थी को 'गहरे पानी पैठ' की हद तक लेकर जाना
शिक्षक द्वारा अपने पूर्वाग्रहों, आशाओं, आशंकाओं को होगा, ऐसी लगन और गहराई में जाने की साध जो पैदा कर
आरोपित करने के स्थान पर शिक्षार्थी को समझने की, उसकी सके, वही अध्यापक है। ऐसे अध्यापक ही भगवान बुद्ध की भाँति
भावनाओं को समझने की। प्रभुत्व प्राप्त करने की जटिल तथा आत्मदीपोभव का संदेश दे सकते हैं।
भयंकर वासना के अधीन दुराग्रह पूर्वक आत्मतुष्टीकरण हेतु
० अष्टदशी / 1400
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org