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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ कारण जिनशास्त्रोंका अभ्यास है, इसलिये उसे प्रयोजनके अर्थ जिनशास्त्रोंका भी अभ्यास स्वयमेव होता है; उसका निरूपण करते हैं। तथा सम्यक्चारित्रके अर्थ रागादि दूर करनेका उपदेश देते हैं; वहाँ एकदेश व सर्वदेश तीव्ररागादिकका अभाव होनेपर उनके निमित्तसे जो एकदेश व सर्वदेश पापक्रिया होती थी वह छूटती है, तथा मंदरागसे श्रावक-मुनिके व्रतोंकी प्रवृत्ति होती है और मंदरागका भी अभाव होनेपर शुद्धोपयोगकी प्रवृत्ति होती है, उसका निरूपण करते हैं। तथा यथार्थ श्रद्धान सहिस सम्यग्दृष्टियोंके जैसे कोई यथार्थ आखड़ी होती है या भक्ति होती है या पूजा-प्रभावनादि कार्य होते हैं या ध्यानादिक होते हैं उनका उपदेश देते हैं। जिनमतमें जैसा सच्चा परम्परामार्ग है वैसा उपदेश देते हैं। इस तरह दो प्रकारसे चरणानुयोगमें उपदेश जानना ।
तथा चरणानुयोगमें तीव्रकषायोंका कार्य छुड़ाकर मंदकषायरूप कार्य करनेका उपदेश देते हैं । यद्यपि कषाय करना बुरा ही है, तथापि सर्व कषाय न छूटते जानकर जितने कषाय घटें उतना ही भला होगा—ऐसा प्रयोजन वहाँ जानना । जैसे-जिन जीवोंके आरम्भादि करनेकी व मन्दिरादि बनवानेकी, व विषय सेवनकी व क्रोधादि करनेकी इच्छा सर्वथा दूर होती न जाने, उन्हें पूजा-प्रभावनादिक करनेका व
चैत्यालयादि बनवानेका व जिनदेवादिकके आगे शोभादिक, नृत्य-गानादिक करनेका व धर्मात्मा पुरुषोंकी सहाय आदि करनेका उपदेश देते हैं; क्योंकि इनमें परम्परा कषायका पोषण नहीं होता।
तथा चरणानुयोगमें कषायों जीवोंको कषाय उत्पन्न करके भी पापको छुड़ाते हैं और धर्ममें लगाते हैं। जैसे-पापका फल नरकादिकके दुःख दिखाकर उनको भय कषाय उत्पन्न करके पापकार्य छुड़वाते हैं, तथा पुण्यके फल स्वर्गादिकके सुख दिखाकर उन्हें लोभ कषाय उत्पन्न करके धर्मकार्योंमें लगाते हैं ।
तथा चरणानुयोगमें छद्मस्यकी बुद्धिगोचर स्थूलपनेकी अपेक्षासे लोकप्रवृत्तिकी मुख्यता सहित उपदेश देते हैं; परन्तु केवलज्ञानगोचर सूक्ष्मपनकी अपेक्षा नहीं देते; क्योंकि उसका आचरण नहीं हो सकता। यहाँ आचरण करानेका प्रयोजन है । जैसे—अणुव्रतीके त्रसहिंसाका त्याग कहा है और उसके स्त्री-सेवनादि क्रियाओंमें त्रसहिंसा होती है। यह भी जानता है कि जिनवाणीमें यहाँ त्रस कहे हैं, परन्तु इसके त्रस मारनेका अभिप्राय नहीं है और लोकमें जिसका नाम त्रसघात है उसे नहीं करता है; इसलिये उस अपेक्षा
त्रसहिंसाका त्याग है। तथा व्रती जीव त्याग व आचरण करता है सो चरणानुयोगकी पद्धति अनुसार व लोकप्रवृत्तिके अनुसार त्याग करता है । जैसे—किसीने त्रसहिंसाका त्याग किया, वहाँ चरणानुयोगमें व लोकमें जिसे त्रसहिंसा कहते हैं उसका त्याग किया है, केवलज्ञानादि द्वारा जो त्रस देखे जाते हैं उनकी हिंसाका त्याग बनता ही नहीं।
तथा चरणानुयोगों व्यवहार-लोक प्रवृत्तिकी अपेक्षा ही नामादिक कहते हैं। जिस प्रकार सम्यक्त्वीको पात्र कहा तथा मिथ्यात्वीको अपात्र कहा; सो यहाँ जिसके जिनदेवादिकका श्रद्धान पाया जाये वह तो सम्यक्त्वी, जिसके उनका श्रद्धान नहीं है वह मिथ्यात्वी जानना। क्योंकि दान देना चरणानुयोगमें कहा है, इसलिये चरणानुयोगके ही सम्यक्त्व-मिथ्यात्व ग्रहण करना। करणानुयोगकी अपेक्षा सम्यक्त्वमिथ्यात्व ग्रहण करनेसे वही जीव ग्यारहवें गुणस्थानमें था और वही अन्तर्मुहूर्तमें पहिले गुणस्थानमें आये,
उसके
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