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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ
कथाओं में पापका पोषण होता है । यहाँ महन्त पुरुष - राजादिककी कथाएँ तो हैं, परन्तु प्रयोजन जहाँ-तहाँ पापको छुड़ाकर धर्ममें लगानेका प्रगट करते हैं; इसलिये वे जीव कथाओंके लालचसे तो उन्हें पढ़ते-सुनते है और फिर पापको बुरा, धर्मको भला जानकर धर्ममें रचिवंत होते हैं । इसप्रकार तुच्छ बुद्धियोंको समझानके लिये यह अनुयोग है । ' प्रथम ' अर्थात् ' अव्युत्पन्न मिथ्यादृष्टि ', उनके अर्थ जो अनुयोग सो प्रथमानुयोग है। ऐसा अर्थ गोम्मटसारकी टीकामें किया है । तथा जिन जीवोंके तत्त्वज्ञान हुआ हो, पश्चात् इस प्रथमानुयोगको पढ़े - सुनें तो उन्हें यह उसके उदाहरणरूप भासित होता हो । जैसे—जीव अनादिनिधन है, शरीरादिक संयोगी पदार्थ हैं, ऐसा यह जानता था । तथा पुराणोंमें जीवोंके भवान्तर निरूपित किये हैं, वे उस जाननके उदाहरण हुए । तथा शुभ-अशुभ- शुद्धोपयोगको जानता था, व उनके फलको जानता था । पुराणों में उन उपयोगोंकी प्रवृत्ती और उनका फल जीवके हुआ सो निरूपण किया है; वही उस जाननेका उदाहरण हुआ । इसी प्रकार अन्य जानना । यहाँ उदाहरणका अर्थ यह है कि जिस प्रकार जानता था, उसी प्रकार वहाँ किसी जीवके अवस्था हुई, इसलिये यह उस जाननेकी साक्षी हुई । तथा जैसे कोई सुभट है, वह सुभटोंकी प्रशंसा और कायरोंकी निन्दा जिसमें हो ऐसी किन्हीं पुराण - पुरुषोंकी कथा सुनने से सुभटप में अति उत्साहवान होता है; उसी प्रकार धर्मात्मा है वह धर्मात्माओंकी प्रशंसा और पापियोंकी निन्दा जिसमें हो ऐसे किन्हीं पुराणपुरुषोंकी कथा सुननेसे धर्ममें अति उत्साहवान होता है । इसप्रकार यह प्रथमानुयोगका प्रयोजन जानना ।
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करणानुयोगका प्रयोजन
तथा करणानुयोग में जीवोंके व कर्मों के विशेष तथा त्रिलोकादिककी रचना निरूपित करके जीवोंको धर्म लगाया है । जो जीव धर्ममें उपयोग लगाना चाहते हैं वे जीवोंके गुणस्थान-मार्गणा आदि विशेष तथा कर्मों के कारण - अवस्था - फल किस-किसके कैसे-कैसे पाये जाते हैं इत्यादि विशेष तथा त्रिलोक में नरकस्वर्गादिके ठिकाने पहिचान कर पापसे विमुख होकर धर्ममें लगते हैं । तथा ऐसे विचार में उपयोग रम जाये तब पाप-प्रवृति छूटकर स्वयमेव तत्काल धर्म उत्पन्न होता है; उस अभ्याससे तत्त्वज्ञानकी भी प्राप्ति शीघ्र होती है । तथा ऐसा सूक्ष्म यथार्थ कथन जिनमतमें ही है अन्यत्र नहीं है; इसप्रकार महिमा जानकर जिनमतका श्रद्धानी होता है । तथा जो जीव तत्त्वज्ञानी होकर इस करणानुयोगका अभ्यास करते हैं, उन्हें यह उसके विशेषणरूप भासित होता है। जो जीवादिक तत्त्वोंको आप जानता है उन्हींके विशेष करणानुयोगमें किये हैं; वहाँ कितने ही विशेषण तो यथावत् निश्चयरूप हैं, कितने ही उपचार सहित व्यवहाररूप हैं; कितने ही द्रव्य-क्षेत्र - काल - भावादिकके स्वरूप प्रमाणादिरूप हैं, कितने ही निमित्त आश्रयादि अपेक्षा सहित हैं । इत्यादि अनेक प्रकारके विशेषण निरूपित किये हैं, उन्हें ज्यों का त्यों मानता हुआ उस करणानुयोगका अभ्यास करता है । इस अभ्याससे तत्त्वज्ञान निर्मल होता है । जैसे कोई यह तो जानता था कि
प्रथमं मिथ्यादृष्टिमव्रतिकमव्युत्पन्नं वा प्रतिपाद्यमाश्वित्य प्रवृत्तोऽनुयोगोऽधिकारः प्रथमानुयोगः ।
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( जी० प्र० टी० गा० ३६२-६२)
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