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शासन प्रमाविका अमर साधिकाएँ
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महासती प्रेम कुंवरजी-आपका जन्म उदयपुर राज्य के गोगुन्दा ग्राम में हुआ और आपका पाणिग्रहण उदयपुर में हुआ था। पति का देहान्त होने पर महासती फूलकुंवरजी के उपदेश से प्रभावित होकर दीक्षा ग्रहण की। आप प्रकृति से सरल, विनीत और क्षमाशील थीं । वि० सं० १९६४ में आपका उदयपुर में स्वर्गवास हुआ। आपकी एक शिष्या थी जिनका नाम विदुषी महासती पानकुंवरजी था, जो बहुत ही सेवाभाविनी थीं और जिनका स्वर्गवास वि० सं० २०२४ के पौष माह में गोगुन्दा ग्राम में हुआ।
महासती मोहनकंवरजी-आपका जन्म उदयपुर राज्य के वाटी ग्राम में हुआ। आप लोदा परिवार की थीं। आपका पाणिग्रहण मोलेरा ग्राम में हुआ था। महासती फूल कुंवरजी के उपदेश को श्रवण कर चारित्रधर्म ग्रहण किया। आपको थोकड़ों का अच्छा अभ्यास था और साथ ही मधुर व्याख्यानी भी थी।
महासती सौभाग्यकुंवरजी-आपका जन्म बड़ी सादडी नागोरी परिवार में हुआ था और बड़ी सादडी के निवासी प्रतापमल जी मेहता के साथ आपका पाणिग्रहण हुआ। आपके एक पुत्र भी हुआ। महासती श्री धूल कुंवरजी के उपदेश को सुनकर आपने प्रव्रज्या ग्रहण की। आपकी प्रकृति भद्र थी। ज्ञानाभ्यास साधारण था। वि० सं० २०२७ आसोज सुदी तेरस को तीन घंटे के संथारे के साथ गोगुन्दा में आपका स्वर्गवास हुआ।
महासती शम्भुकुंवरजी-आपका जन्म वि० सं १६५८ में वागपुरा ग्राम में हुआ। आपके पिता का नाम गेगराजजी धर्मावत और माता का नाम नाथीबाई था । खाखड़ निवासी अनोपचन्द जी वनोरिया के सुपुत्र धनराजजी के साथ आपका पाणिग्रहण हुआ। आपके दो पुत्रियाँ हुई। बड़ी पुत्री भूरबाई का पाणिग्रहण उदयपुर निवासी चन्दनमल जी कर्णपुरिया के साथ हुआ। कुछ समय पश्चात् पति का निधन होने पर आप उदयपुर में अपनी पुत्री के साथ रहने लगीं। महासती धूलकुंवरजी के उपदेश को सुनकर वैराग्य भावना उबुद्ध हुई। अपनी लधु पुत्री अचरज बाई के साथ वि० सं० १९८२ फाल्गुन शुक्ला द्वितीय को खाखड ग्राम में दीक्षा ग्रहण की। पुत्री का नाम शीलकंवरजी रखा गया । आपको थोकड़ों का तथा आगम साहित्य का अच्छा परिज्ञान था । आपके प्रवचन वैराग्यवर्धक होते थे। वि० सं० २०१८ में आप गोगुन्दा में स्थिरवास विराजी । वि० सं० २०२३ के अषाढ़ बदी तेरस को संथारापूर्वक स्वर्गवास हुआ। आपकी प्रकृति भद्र व सरल थी। सेवा का गुण आप में विशेष रूप से था। . इसी परम्परा में परम विदुषी महासती श्री शीलकुंवरजी महाराज वर्तमान में हैं। महासती शीलकुंवरजी की महासती मोहनकुँवरजी, महासती सायरकुंवरजी, विदुषी महासती श्री चन्दनबालाजी, महासती श्री चेलनाजी, महासती साधनाकुंवरजी और महासती विनयप्रभाजी आदि अनेक आपकी सुशिष्याएँ हैं जिनमें बहुत सी प्रभावशाली विचारक व वक्ता हैं।
___ महासती नवलाजी की चतुर्थ शिष्या जसाजी हुईं। उनके जन्म आदि वृत्त के सम्बन्ध में सामग्री प्राप्त नहीं हो सकी है। उनकी शिष्या-परम्पराओं में महासती श्री लाभकुंवरजी थीं। इनका जन्म उदयपुर राज्य में कंबोल ग्राम में हुआ। इन्होंने लघुवय में दीक्षा ग्रहण की। ये बहुत ही निर्भीक वीरांगना थीं। एक बार अपनी शिष्याओं के साथ खमनोर (मेवाड़) ग्राम से सेमल गाँव जा रही थी। उस समय साथ में अन्य कोई भी गृहस्थ श्रावक नहीं थे, केवल साध्वियाँ ही थीं। उस समय सशस्त्र चार डाकू आपको लूटने के लिए आ पहुँचे। अन्य साध्वियाँ डाकुओं के डरावने रूप को देखकर भयभीत हो गयीं। डाक सामने आये । महासतीजी ने आगे बढ़कर उन्हें कहा-तुम वीर हो, क्या अपनी बहू-बेटी साध्वियों पर हाथ उठाना तुम्हारी वीरता के अनुकूल है ? तुम्हें शरम आनी चाहिए । इस वीर भूमि में तुम साध्वियों के वस्त्र आदि लेने पर उतारू हो रहे हो। क्या तुम्हारा क्षात्रतेज तुम्हें यही सिखाता है ? इस प्रकार महासती के निर्भीकतापूर्वक वचनों को सुनकर डाकुओं के दिल परिवर्तित हो गये। वे महासती के चरणों में गिर पड़े और उन्होंने प्रतिज्ञा की कि हम भविष्य में किसी बहन या माँ पर हाथ नहीं उठायेंगे और न बालकों पर ही। डाका डालना तो हम नहीं छोड़ सकते, पर इस नियम का हम दृढ़ता से पालन करेंगे ।
एक बार महासती लाभकुँवरजी चार शिष्याओं के साथ देवरिया ग्राम में पधारी। वहाँ पर एक बहुत ही सुन्दर मकान था । एक श्रावक ने कहा-महासतीजी यह मकान आप सतियों के ठहरने के लिए बहुत ही साताकारी रहेगा। अन्य श्रावकगण मौन रहे । महासतीजी वहाँ पर ठहर गयीं। महासतीजी ने देखा उस मकान में पलंग बिछा
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