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रूपेन्द्र कुमार पगारिया
श्रावक को अष्टमी - पूर्णिमा जैसी तिथियों में ही पौषध करना चाहिए, अन्य दिनों
में नहीं ।
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सामायिक का समय केवल दो ही घड़ी है। दो घड़ी से अधिक की सामायिक नहीं होती । साथ ही श्रावक को प्रातः तथा संध्या के समय ही सामायिक करनी चाहिए। दो से अधिक बार श्रावक को सामायिक नहीं करनी चाहिए ।
कुछ लोग श्रावक को सूत्र पढ़ने या पढ़ाने का निषेध करते थे । शतपदीकार ने इस विषय थोड़ी छूट देते हुए कहा - श्रावक आवश्यक निर्युक्ति, चूर्णि तथा सूत्रों के अलापक ( ग्रथांश) पढ़ सकता है । साधु भी श्रावक को मर्यादित एवं उनके उपयोगी शास्त्र पढ़ा सकता है ।
आवश्यक चूर्ण में बतायी गई विधि के अनुसार ही श्रावक को षडावश्यक करना चाहिए । साधु के उपाश्रय में स्त्रियों को खड़े खड़े ही वन्दन करना चाहिए । साधु के उपाश्रय में स्त्रियों को बैठना या घुटने टेक कर वन्दन करना शास्त्र विरुद्ध है ।
मूर्ति को वन्दन एक खमासमन से भी हो सकता है ।
श्रावक द्वादशावर्तरूप वन्दन सामान्य साधु को भी कर सकता है ।
प्रायश्चित्त का विधान साधु के लिए ही है यह कथन उचित नहीं । श्रावक भी साधु की अपने पापों का प्रायश्चित्त कर सकता है ।
तरह: पर्व तिथिविषयक विचार
तीर्थंकरों के जन्म, च्यवन, दीक्षा, ज्ञान एवं निर्वाणकल्याणक नहीं मनाने चाहिए । जो जिनकल्याणक मनाते हैं वे शास्त्र विरुद्ध कार्य करते हैं ।
आसोज और चैत्र मास के अष्टाह्निक पर्व न मनाये जायें ।
सांवत्सरिक प्रतिक्रमण आषाढ़ी पूर्णिमा से ५० वें दिन ही करना चाहिए ।
चातुर्मास विहार पूर्णिमा के दिन ही करना चाहिए तथा पूर्णिमा को ही पक्खी माननी चाहिए | चतुर्दशी को नहीं ।
लौकिक पंचांग नहीं मानना चाहिए। क्योंकि लौकिक पंचांग में जैन सिद्धान्तों के विरुद्ध अनेक बातें आती हैं ।
अधिक मास पौष या आषाढ़ को ही अर्थात् भाद्रपदसुद ५ के दिन ही पर्यूषण पर्व साधु के आचार विषयक- अपवाद
मानना चाहिए। अधिक मास में 'वीसापजूषण' मनाया जाय ।
साधु को बाँस का ही दण्डा रखना चाहिए ऐसा एकान्त नियम नहीं है काष्ठ का भी रख सकते हैं ।
साधु को पर्व के दिनों में ही चैत्यवन्दन करना चाहिए । प्रतिदिन वन्दन के लिए चैत्य में जाने की आवश्यकता नहीं है ।
साधु को द्रव्य स्तव करने या करवाने का शास्त्र में निषेध है (जिन भगवान् के सामने नाटक, गीत, नृत्य आदि करवाना द्रव्यस्तव है ) अर्थात् द्रव्यस्तव साधु को त्रिविध त्रिविध रूप से नहीं करना चाहिए ।
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