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________________ 1 प्रत्येक धर्म के दो अंग होते हैं। आचार और विचार। जैन धर्म के आचार का मूलाधार अहिंसा और विचार का मूल अनेकान्तवाद है | अहिंसा आत्मा का स्वभाव है ।" अहिंसा का प्रतिपक्ष हिंसा है। हिंसा का अर्थ है दुष्प्रयुक्त मन, वचन काया के योगों से प्राणव्यपरोपण करना। जैन धर्म प्रमाद को हिंसा का मूल स्रोत मानता है। क्योंकि प्रमादवश अर्थात् असावधानी के कारण ही जीव के प्राण का हनन होता है। जैन धर्म सन्देश देता है कि प्राणी मात्र जीना चाहता है कोई मरना नहीं चाहता । सुख सभी के लिए अनुकूल यही है कि प्राणी की हिंसा न की जाय । जैन धर्म ने अहिंसा के संदर्भ में जितना सूक्ष्म धर्म में नहीं मिलता। यह धर्म मूलतः भावना पर आधृत है। यहां हिंसा को दो वर्गों जिसमें भाव-हिसा ही प्रधान है। जैन धर्म के अनुसार "अपने मन में किसी भी प्राणी एवं दुःख अनुकूल है।' ज्ञान और विज्ञान का सार भी और वैज्ञानिक विवेचन किया है उतना किसी अन्य में वर्गीकृत किया है— भाव-हिंसा और द्रव्य-हिंसा के प्रति किसी प्रकार की दुर्भावना रखने मात्र से ही अपने शुद्ध भावों का घात कर लेना हिंसा है। चाहे यह दुर्भावना कार्यान्वित हो या न हो और उससे किसी प्राणी को कष्ट पहुंचे या न पहुंचे परन्तु इन दुर्भावनाओं के आने मात्र से व्यक्ति हिंसा का दोषी हो जाता है ।" जैन धर्म की यह शिक्षा व्यक्ति को कायर नहीं अपितु वीर बनाती है। क्योंकि "क्षमा वीरस्य भूषणम्" अर्थात् क्षमा वीर का आभूषण है, कहा गया है । यह क्षमामय वीरता जीव मात्र को अभय प्रदान करती है । वास्तव में अहिंसा सर्वथा व्यावहारिक है। भौतिक युग में शक्ति तथा समता स्थिर करने के लिए अहिंसा की चरम अपेक्षा है। अहिंसा के द्वारा अनन्त आनन्द सहज में ही प्राप्त किया जा सकता है। सात्विक जीवन निर्वाह हेतु मनुष्य को प्रेरित करना जैन धर्म का मुख्य लक्ष्य रहा है । अतः स्वास्थ्य रक्षा एवं आरोग्य की दृष्टि से जैन धर्म आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के अत्यन्त निकट है। जैन धर्म मानव शरीर को जल सम्बन्धी समस्त दोषों से युक्त और शरीर को स्वस्थ तथा निरोग रखने की दृष्टि से शुद्ध ताजे, छने हुए और यथासम्भव उबालकर ठण्डा किये हुये जल के सेवन का निर्देश देता है। स्वास्थ्य विज्ञान भी जैन धर्म के इस सिद्धान्त से पूर्णतः सम्मत है। भोजन ( अहार ) के सम्बन्ध में जैन धर्म का दृष्टिकोण अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तथा वैज्ञानिक है। उसके अनुसार मानव जीवन एवं मानव शरीर को स्वस्थता प्रदान करने के लिए तथा आयुपर्यन्त शरीर की रक्षा के लिए निर्दोष परिमित सन्तुलित एवं सात्विक आहार ही सेवनीय होता है । वस्तुतः समस्त हिंसा के निमित्तों से रहित आहार ही योग्य है।" जैन धर्म की यह मान्यता है कि सूर्यास्त के पश्चात् रात्रि में भोजन नहीं करना चाहिए।" इसका वैज्ञानिक महत्त्व एवं आधार यह है कि आस पास के वातावरण में अनेक ऐसे सूक्ष्म जीवाणु विद्यमान रहते हैं जो दिन में सूर्य प्रकाश में उपस्थित नहीं रहते। जिससे भोजन दूषित मलिन व विषमय नहीं हो पाता है। दूसरा महत्वपूर्ण सत्य है कि भोजन मुख से गले के मार्ग द्वारा सर्व प्रथम आमाशय में पहुंचाता हैं। जहां उसकी वास्तविक परिपाक प्रक्रिया प्रारम्भ होती है । परिपाक हेतु वह भोजन आमाशय में रहता है तब मनुष्य को जागृत एवं क्रियाशील रहना चाहिए क्योंकि मनुष्य की जागृत एवं क्रियाशील अवस्था में ही आमाशय की क्रियासक्रिय रहती है। जिससे मुक्त भोजन के पाचन में सहयोग मिलता है। इसी आधार पर रुग्णव्यक्ति को रात्रि काल में पथ न लेने की व्यवस्था चिकित्सा शास्त्र में है। जैन धर्म भी सूर्योदय से दो घड़ी पूर्व तक और सूर्यास्त होने पर व्यक्ति को भोजन करने की अनुमति नहीं देता है। आहार सम्बन्धी नियम की यह समानता निश्चय ही जैन धर्म की आधुनिक चिकित्सा विज्ञान को एक महत्त्वपूर्ण मौलिक देन है । आधुनिक चिकित्सा विज्ञान धूम्रपान व मद्यपान को अस्वास्थ्य कारक बताता है। शारीरिक तथा मानसिक दोनों दृष्टि से ये पदार्थ मानव स्वास्थ्य के सर्वथा अननुकूल हैं । इस सम्बन्ध में जैन धर्म का दृष्टिकोण व्यापक है। उसके अनुसार मद्यपान से द्रव्य तथा १. मानिदिदा समो" ६०२ २. "मणवपण काहि जो एहि दुष्पउत्तेहि जं पाणववरोपणं कज्जइ सा हिंसा" -जिनदासचूर्णि पृ० ६-६ ३. “प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिसा ।" तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय सूत्र प ४. "सब्वे णाणा पिआडयासुह्साया, दुह पडिकूला आधिक वहा ।" - आचारांगसूत्र १-२-३ ५. "एवं खुणांगिणों सारं जं न हिंसइ किचणं । अहिंसासमयं चैव एता वंत विसाणिया ।" सूत्रकृतांग, श्रुति १ अध्याय १ गाथा ६. "मुहूर्त युग्मोमोर्ध्वमगालनं वा दुर्वाससा गालनमंबुनोवा । अन्यत्र वागालितशेपि तस्यन्यासो नियाने स्य न तद्रव्रतेर्च्यः " ७. "समस्त हिंसा यतनशून्य एव हारो युक्ताहारः । " -प्रवचनसार, २२६ ८. "राग जीव वधापायभूयस्त्वाजन्ददुत्सृजेत् । रात्रि भक्तं तथा युज्यान्नपानीयमगालित ।। ' - सागारधर्मामृत, अध्याय २, श्लोक सं० १४ ९. "मूहूर्तेत्ये तथाद्य हो वल्लभानस्तमिताशिन: । गदच्छिदेऽप्पाम्नं घृताद्युपयोगश्च दुष्यति ।। " सागारधर्मामृत, अध्याय ३, श्लोक सं० १५ ७८ Jain Education International - सागारधर्मामृत, अध्याय ३, श्लोक सं १६ आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211957
Book TitleVaigyanik Aaine me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajiv Prachandiya
PublisherZ_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
Publication Year1987
Total Pages6
LanguageHindi
ClassificationArticle & Religion
File Size687 KB
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