________________ 17. J.G. Benkett : The Dramatic Universc Vol. IV; Hodder Stoughton, London, 1966, pp. 120-21 18. Coronet, Vol. XXVI, No. V. p. 30. 19. Dated, 30th. August, 1969, Bombay. 20. Cf. Bahm, op. cit., p. 203. 21. The Dramatic Universe, Vol. IV, pp. 113-114. 22. ibid, pp. 123. 23. Many of the cosmological questions cannot be answered without accepting begining less and endless existence of the fundamental substances. 24. Umaswati, Tattwarthsutra, 2-32. लेखसार जैनदर्शन के आधार पर पाश्चात्य भौतिकवाद का निराकरण मुनिश्री महेन्द्रकुमार, बी० एस्सी० (ऑनर्स) पाश्चात्य विचारधारा में यूनानी दार्शनिकों के युग से लेकर आजतक जगत् और जीवन के संबंध में भौतिकवाद का ही मुख्यतः आश्रय लिया गया है / इसके अनुसार आत्मा या चेतनत्व की प्रक्रिया भौतिक तत्त्वों या क्रियाओं का ही एक विकसित रूप माना जाता है। इस सिद्धान्त में तार्किक, यांत्रिक तथा लोकवादी आधार पर शरीर और आत्मा की अभिन्नता प्रतिपादित की जाती है। विद्वान् लेखक ने इस लेख में भौतिकवादियों के इन तीनों ही प्रकार के तर्कों को नवीन वैज्ञानिक परामनोविज्ञानी तथा अन्य ग्रहों की संरचना से संबंधित तथ्यों के आधार पर तथा विशिष्ट बौद्धिक तर्कों के सहारे सारहीन प्रमाणित किया है। उन्होंने बताया है कि द्रव्यमान तथा ऊर्जा के संरक्षण के नियम के समान आत्मोर्जा के संरक्षण का नियम भी होना चाहिये क्योंकि शरीर और आत्मा स्वतन्त्र एवं एक-दूसरे में अपरिवर्तनशील द्रव्य है / उमास्वाति के द्वारा प्रस्तावित योनियों के आधार पर उन्होंने 'विश्व के उद्भव' के सिद्धान्त को भी जैन दर्शन सम्मत सिद्ध किया है तथा आत्मा के पृथक् अस्तित्व के विरोध मे दिये गये तर्कों को अपूर्ण बताया है। -- 184 - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org