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________________ -0-0-0--0-0-0-0-0-0-0 ४२ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय भी, जिनका नाम मात्र प्रसंगवश वैदिक वाङ्मय' में मिलता है और जिनका सविस्तार निर्देश जैन वाङ्मय के १४ पूर्वो के कथन में दिया हुआ है, कोई लिखित साहित्य मौजूद नहीं है. अति (श्रुति ज्ञान) की परम्परा वैदिक सूक्तों से भी अति प्राचीन है-वैदिक परम्परा में साधारणतया वेदसंहिताओं, ब्राह्म आरण्यक और उपनिषदों को श्रुति की संज्ञा दी जाती है और तदुपरान्त शेष हिन्दु साहित्य को, जिसमें श्रोत्र सूत्र, ग्रह्म सूत्र, कल्पसूत्र, स्मृतिग्रंथ आदि सम्मिलित हैं, उन सभी को स्मृति की संज्ञा दी जाती है, परन्तु वास्तव में इनमें से कोई भी रचना 'श्रुति' कहलाने की अधिकारी नहीं है. भारत की सभी प्राचीन वैदिक तथा श्रमण अनुश्रुतियों के अनुसार भारतीय जन की सदा ही यह अट धारणा रही है कि सभी ज्ञान विज्ञान और कला सम्बन्धी विद्याओं का मूल स्रोत आदि ब्रह्मा, आदिपुरुष, आदि प्रजापति स्वयंभू ब्रह्मा हैं. आदि ब्रह्मा के जिन शिष्यों प्रशिष्यों की प्रणाली द्वारा ये विद्यायें हम तक पहुंची हैं उनके अनुवंशों का उल्लेख तत्-तत् विद्या सम्बन्धी सभी प्राचीन रचनाओं में भिन्न-भिन्न ढंग से किया गया है। इन रचनाओं के अतिरिक्त आदि ब्रह्मा की वाणी के द्वारा कथित जीवन-जगत सम्बन्धी अनेक तात्त्विक, धार्मिक, पौराणिक, और ऐतिहासिक तथ्य जो वैदिक आर्यजनों के आगमन के पूर्व यहाँ के दस्युजनों को प्राप्त थे जिन्हें वे स्वयम्भू-कथित होने से श्रद्धेय मान कर कंठस्थ किये हुये थे, कालप्रवाह में बहते-बहते सन्ततिप्रसन्तति क्रम से आये मनीविषयों को भी सुनने को मिले हों. वेद सूक्तों के निर्माता ऋषियों ने अपने सूक्तों में गूंथे हुए तथ्यों की प्रामाणिकता-पुष्टि में स्थान-स्थान पर इन श्रुतियों की ओर संकेत करते हुए 'श्रयते श्रुतम्' आदि शब्दों का प्रयोग किया है. इन उदाहरणों से पता लगता है कि श्रुतिज्ञान वेदसंहिताओं में संकलित सूत्रों से भी प्राचीन है. ये श्रुतियाँ आप्त-वचन होने के कारण तत्त्वतः प्रमाण मानी जाती रही हैं. और इन श्रुतियों पर आधारित होने के कारण वेद-सूक्तों को भी श्रुति कहा जाने लगा है. ब्राह्मणों का श्रेय-इस अभाव पर से कुछ विद्वानों ने यह मत निर्धारित कर लिया है कि औपनिषदिक काल से पहले भारतीय लोगों को आत्मविद्या का कोई बोध न था. भारत में अध्यात्मविद्या का जन्म उपनिषदों की रचना के साथसाथ या उससे कुछ पहले से हुआ है. उनका यह मत कितना भ्रमपूर्ण है यह ऊपर वाले विवेचन से भलीभांति सिद्ध है. औपनिषदिक काल आत्मविद्या का जन्मकाल नहीं है. आत्मविद्या तो वैदिक आर्यगण के आने से भी बहुत पहले बल्कि यों कहिए कि सिन्ध घाटी की ३००० वर्ष ईसा पूर्व मोहनजोदड़ोकालीन आध्यात्मिक में संस्कृति से भी पहले यहाँ के व्रात्य यति, श्रमण, जिन, अतिथि, हंस आदि कहलाने वाले योगी जनों के जीवन प्रवृत्त में हो रही थी. औपनिषदिक काल तो उस युग का स्मारक है जब ब्राह्मण विद्वानों की निष्ठा वैदिक त्रिविद्या (ऋक्, यजुः साम) से उठकर आत्मविद्या की १. अथर्व वेद १५-१(६) ७-१२. गोपथब्राह्मण पर्व १-१०. शतपथ ग्रा० १४-५-४-१०. बृहदारण्यक उप० २.४, १०. छान्दोग्य ७, १, २. शांखायन श्रौत सूत्र १६२. आश्वलायन श्रौत सूत्र १०, ७. अथर्व वेद ११-७-२४ शतपथ ब्रा० १३-४-३. ३-१४. २. (अ) पटखगडागम-धवला टीका जिल्द १ अमरावती सन् १९३८ पृ० १०७१२४ (आ) समवायांग सूत्र. (इ) स्थानांग (ई) नन्दीसूत्र (उ) पाक्षिक सूत्र (3) आठवीं सदी के श्रीजिनसेनाचार्यकृत हरिवंशपुराण १० ११-१४३, (ए) आठवीं सदी के स्वामी जिनसेन कृत महापुराण २-१९८-११३-३४, १३५-१४७. (2) अंगपण्णत्ति-शुभचन्द्राचार्य कृत (ओ) तत्त्वार्थसारदीपिका-भट्टारक सकलकीर्तिकृत ३. (क) ऋग्वेद १०-६०-६. (ख) शतपथ ब्राह्मण अन्तर्गत वंश ब्राह्मण १४-६-४, १४, ५, १६-२२. (घ) बृहदारण्यक उपनिषद् २, ६, ६, ५. (ड) छान्दोग्य उपनिषद् ३, ५१, ४, ८, १५, १. (च) मुण्डक उप०१,१-२, २,१,६. (छ) महा शान्ति पर्व ३४६, ५१-५३ भगवद्गीता ४, १-२. (ज) चरक संहिता-सूत्र स्थान, प्रथम प्राध्याय. Y JainEduCitral aM Ste&PESHd 295ary.org
SR No.211955
Book TitleVedottar Kal me Bramhavidya ki Punarjagruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaybhagwan Jain
PublisherZ_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf
Publication Year1965
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ritual
File Size2 MB
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