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________________ इस प्रसंग में यह दोहा बहुत प्रसिद्ध है बीरों, सन्तों और भक्तों को भूमि मेवाड़ एक परिचय | १०३ अकबर जासी आप दिल्ली पासी दूसरा । पुण्य रासी प्रताप सुयश न जासी सूरमा ।। महाराणा प्रताप के बाद मेवाड़ के सिंहासन पर राजसिंह, सज्जनसिंह, फतहसिंह, भूपालसिंह जैसे प्रतिभासम्पन्न महाराणा हो चुके हैं। सन्त और भक्त प्रसविनी- भू मेवाड़ की भू द्रव्य रत्न, वीर रत्न के साथ सन्त और भक्त प्रसविनी भूमि भी है। यहाँ की भूमि उस सतीनार बडभागन लक्ष्मी के समान है जिसके विषय में एक कविता में कहा गया है सुनाते थे। - "सति नार सूरा जणे बड़ भागन दातार । भाग्यवान लक्ष्मी जणे सो सारण में सार ॥ सो सारण में सार एक पापन की पूड़ी । चोर, जुआरी, चुगलखोर जने नर भडसूरी ॥ रामचरण साँची कहे या में फेर न फार । सती नार सूरा जणे बड भागन दातार ॥ भक्त शिरोमणि मीरां - प्रातः स्मरणीय महाराणा प्रताप के नाम के साथ भक्त शिरोमणि मीरां का नाम भी उतना ही गौरवशील और लोकप्रिय है मीरां मेवाड़ की राजरानी थी, उसका सांसारिक विवाह मेवाड़ के युवराज भोज के साथ हुआ। मीरां कृष्ण की परम भक्त थी । मीरां के भक्ति गीतों ने मेवाड़ की भूमि को पावन कर दिया। उनकी सगुण दाम्पत्य भक्ति पूर्ण वियोग श्रृंगार के पद हिन्दी काव्य की निधि है । मुनिराज रोड़ीदास जी म० साहब - मुनिराज रोड़ीदास जी महाराज साहब मेवाड़ के अग्रणी सन्त हुए हैं । उनकी तपशक्ति बहुत ही बढ़ी चढ़ी थी। उनके तप बल की एक लोक-कथा बहुत प्रसिद्ध है— एक बार मुनिराज रोडीदास जी ने हाथी से आहार ग्रहण करने का अभिग्रह धारणा किया जब वे आहार ग्रहण करने के लिए बाहर निकले तो मार्ग में उन्हें एक हाथी मिल गया। हाथी ने मुनिराज की तरफ देखा, कुछ समझा और पास की एक मिठाई की दुकान से मिठाई उठाकर उसने आहार मुनिराज की झोली में डाल दिया । सन्त मानमल जी महाराज - भक्त और सन्तों की परम्परा में मेवाड़ी सन्त मानमलजी महाराज का नाम भी बहुत आदर से लिया जाता है । उनके विषय में एक आख्यान प्रसिद्ध है। एक बार नाथद्वारा के पास ग्राम खमनोर के एक भेरू के मन्दिर में इन्होंने रात्रि विश्राम किया है। कहा जाता है उसी रात भेरूदेवता और इस्टापक देवी मुनिराज से बहुत प्रसन्न एवं प्रभावित हुए और तभी से उनकी सेवा में रहने लगे। यह आख्यान आज मी वहाँ की जनता में बहुत लोकप्रसिद्ध है । बावजी चतरसिंह जी Jan Education international उदयपुर के इस सिसोदिया वंश में कविराज श्री चतरसिंह जी हो गये हैं इनका मेवाड़ी भाषा पर अपना अधिकार था। उस युग की चलने वाली प्रत्येक अच्छाइयों बुराइयों पर रचनाएँ किया करते थे, हिन्दू एवं मुसलमानों के बीच शान्ति चाहने वाले थे। भगवान पर पूर्ण विश्वास था । जैसे अपने कइ कणी रो लेणो, सब सम्प करी ने रहनो । राम दियो जो लिख ललाट में वी में राजी रहनो । हलको भारी खम लेनो पण कड़वो कबहु न केह नो ॥ इसी प्रकार अपने ही भाई-बन्धुओं में शराब पीने की बुराइयाँ देखीं, तब तीखे और सीधे शब्दों में For Private & Personal Use Only 000000000000 * planom 000000000000 10001000000 S.Bhate/ www.jainelibrary.org
SR No.211953
Book TitleViro Santo aur Bhakto ki Bhumi Mevad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiramuni
PublisherZ_Ambalalji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012038.pdf
Publication Year1976
Total Pages5
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size687 KB
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