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प्रकृत में हमें 'वीर - निर्वाण' पर्वपर प्रकाश डालना है । अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीरने कार्तिक कृष्णा चतुर्दशीकी रात्रि और अमावस्याके प्रत्यूषकाल ( ब्राह्ममुहूर्त - प्रातः ) में स्वातिनक्षत्र में पावानगरीसे निर्वाण प्राप्त किया था । अत एव इस महान् एवं पावन दिवसको जैन परम्परामें 'वीर निर्वाण' पर्व के रूपमें मनाया जाता है । आचार्य यतिवृषभ ( ई० सन्० ५ वीं शती) ने अपनी 'तिलोयपण्णत्ती' ( ४-१२०८ ) में स्पष्ट लिखा है
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इस गाथा में कहा गया है कि भगवान् वीरनाथ कार्तिकवदी १४ के प्रत्यूषकालमें स्वातिनामक नक्षत्र में पावापुरीसे अकेले सिद्ध ( मुक्त ) हुए ।
इसके सिवाय आचार्य वीरसेन ( ई० ८३९ ) ने अपनी 'षट्खण्डागम' की विशाल टीका 'धवला' में 'वीर- निर्वाण' का प्रतिपादन करने वाली एक प्राचीन गाथा उद्धृत की है । उसमें भी यही कहा गया है । वह गाथा निम्न प्रकार है
कत्ति किन्हे चोदसि-पच्चूसे सादिणामणक्खत्ते । पावाए णयरीए एक्को वीरेसरो सिद्धो ॥
'पश्चात् वीरनाथ पावानगर में पहुँचे और वहांसे कार्तिकवदी चउदसकी रात्रि में स्वाति नक्षत्र में शेष रज ( अघातिया कर्मों ) को भी नाश करके निर्वाणको प्राप्त हुए ।'
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यहाँ एक असंगति और विरोध दिखाई दे सकता है कि उपर्युक्त 'तिलोयपण्णत्ती' के उल्लेख में चतुर्दशीका प्रत्यूषकाल' बतलाया गया है और यहाँ ( धवलामें उद्धृत गाथा में' ) 'चतुर्दशीकी रात' बतलायी गयी है ? इसका समाधान स्वयं आचार्य वीरसेनने टीका में 'रत्तीए' पदके विशेषण के रूपमें 'पच्छिमभाए' - 'पिछले पहर में' पदका प्रयोग अध्याहृत करके कर दिया है और तब कोई असंगति या विरोध नहीं रहता । इससे स्पष्ट होता है कि चतुर्दशीकी रात के पिछले पहर में अर्थात् अमावस्या के प्रत्यूषकाल ( प्रातः ) में भ० वीरनाथका निर्वाण हुआ । 'तिलोयपण्णत्ती' की उक्त गाथामें भी यही अभिप्रेत है । अतः आम तौरपर निर्वाणकी तिथि कार्तिकवदी अमावस्या मानी जाती है, क्योंकि धवलाकार के उल्लेखानुसार इसी दिन निर्वाणका समस्त कार्य - निर्वाणपूजा आदि सकल देवेन्द्रों द्वारा किया गया था | धवलाकारका वह उल्लेख इस प्रकार है
प्रकार है
पच्छा पावाणयरे कत्तियमासे य किण्ह चोद्दसिए । सादीए रत्तीए सेसरयं हत्तु णिव्वाओ ||
'अमावसीए परिणिव्वाणपूजा सयलदेवेंदेहि कयात्ति ।'
उत्तरपुराण में आचार्य गुणभद्र ने भी 'कार्तिक कृष्णपक्षस्य चतुर्दश्यां निशात्यये ।' इस पद्यवाक्यके द्वारा कार्तिकवदी चतुर्दशीकी रात के अन्त में भ० महावीरका निर्वाण बतलाया है ।
हरिवंशपुराणकार जिनसेन के हरिवंशपुराणगत उल्लेखसे भी यही प्रकट है । उनका वह उल्लेख इस
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जिनेन्द्रवीरोऽपि विबोध्य सन्ततं समन्ततो भव्यसमूहसन्ततिम् । प्रपद्य पावानगरी गरीयसीं मनोहारोद्यानवने तदीयके ॥ चतुर्थकालेऽर्धचतुर्थमास कैविहीनताभिश्चतुरब्दशेषके सकार्तिके स्वातिषु कृष्ण भूतसुप्रभातसन्ध्यासमये स्वभावतः ॥
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