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वैचारिक संघर्ष ने "शीत युद्ध" को जन्म दिया। जिस मानवीय स्वरूप में इसका संचालन हुआ है उसने यह स्पष्ट कर दिया है कि शीतयुद्धों और गृहयुद्धों का विस्तार आज किसी भी समय ऐसे विश्वयुद्ध का रूप ले सकता है जो सम्पूर्ण मानव सभ्यता को नष्ट कर दे।
अशान्ति और सुरक्षा के इस खतरनाक दौर के मूल में झाँकने और उसके निदान पर विचार करने पर बरबस ही हमारी दृष्टि उन सारी बातों पर ही जाकर ठहरती है जो तीर्थंकर महावीर ने आज से पच्चीस शताब्दियों पूर्व कही थीं । तीर्थ कर महावीर का युग भी हिंसा, घृणा, द्वेष, विषमता और वैमनस्य के विषाक्त वातावरण से ग्रस्त था। वर्द्धमान महावीर इसी वातावरण से प्रेरणा ग्रहण कर, राजपाट छोड़, मानव समाज को अशान्तिपूर्ण वातावरण से मुक्त कराने का मार्ग खोजने को सकल्पबद्ध हो, स्थायी शांति की खोज में निकल पड़े। अनेकों वर्गों की कठोर साधना और चिन्तन के पश्चात् केवलज्ञान की स्थिति को प्राप्त कर महावीर ने प्राणीमात्र के कल्याणार्थ जो सन्देश दिया, उसका मूलाधार उनका सत्य, अहिमा प्रेम, करुणा, सहअस्तित्व, अपरिग्रह, अनेकान्तबाद और स्याद्वाद का शाश्वत सन्देश है ।
तीर्थंकर महावीर ने कहा कि "सभी प्राणियों को अपना जीवन प्यारा है, सुख सबको अच्छा लगता हैं, दु:ख बुरा। सभी जोवों के प्रति मंत्री भाव रखना चाहिए । संसार में जितने दुःख हैं, वे सब हिंसा से उत्पन्न हैं, अतः किसी की हिंसा मत करो, किसी को त्रास मत पहुँचाओ" उन्होंने न केवल मनुष्य पर वरन प्राणीमात्र पर दया का उपदेश दे, हिंसा को ही सभी दुःखों का कारक तत्व बताया। इस कारण उन्होंने जीवन में अहिंसा व्रत का पूर्ण पालन करने को प्रेरित कर कहा, "जो स्वयं के लिए तुम्हें नहीं रुचता है, उसका व्यवहार दूसरों के लिए मत करो। किसी भी प्राणी का घात मत करो जिस प्रकार तुम्हें सुख-दुःख का अनुभव होता है उसी प्रकार दूसरे प्राणी भी सुख-दुख का अनुभव
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करते हैं।" इस प्रकार महावीर ने प्राणीमात्र पर दवा करने और उनसे समान व्यवहार का विचार देकर उच्चतम अहिंसक प्रतिमानों की स्थापना की।
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अहिंसा व्रत के पालन में उन्होंने प्राणीमात्र पर दया करने और वैचारिक एवं व्यावहारिक दोनों ही स्वरूपों में प्रत्येक जीव के प्रति दयामय रहते हुए उनसे समान व्यवहार करने पर बल दिया। उन्होंने अहिंसा की सकारात्मक व्याख्या की और कहा कि "सभी प्राणी समान है, सभी जीवों की आत्मा एक-सी है, कोई किसी से ऊँचा या नीचा नहीं है । इस कारण सभी जीवों को दूसरे प्राणियों से वैसा व्यवहार करना चाहिए, जैसा कि वह दूसरों मे अपेक्षा करता है।" इस प्रकार महावीर ने समाज की इकाई मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन में अहिंसक रहने, सदाचरण का पालन कर राजनरित्र बनने पर बल दिया ।
आज विश्व शान्ति को खतरा होने का मूल कारण यही है कि उसमें राष्ट्र या वर्ग के अस्तित्व पर तो अत्यधिक महत्व दिया जा रहा है, उसकी प्रगति की बात की जाती है, परन्तु उसके समक्ष व्यक्ति को, अर्थात् मानवीय जीवन और चरित्र को गौण बना दिया गया है । महावीर ने प्रत्येक इकाई के सुधार पर बल दिया और सभी के प्रथक् प्रथक् अस्तित्व को स्वीकारा महावीर ने न केवल प्राणीमात्र की रक्षा पर बरन् पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति के जीवों की रक्षा पर भी बल दिया। उन्होंने किसी प्राणी की हत्या को ही हिंसा नहीं कहा, वरन् मन में या वैचारिक दृष्टि से किये गये हिंसक कार्यों के समर्थन को भी हिंसा कहा । आज जब कहीं शान्ति की बात की जाती है, वहाँ केवल युद्ध को टालने अथवा मानवीय हिंसा से विरत रहने को ही अहिंसा मानकर विचार होता है, जबकि मन की हिंसा या वैचारिक हिंसा पर न तो विचार ही होता है, न ही कोई उसे छोड़ने को तैयार है। यही कारण है कि स्थायी विश्व शान्ति की स्था पना की दिशा में किए गये प्रयास विफल हो जाते हैं ।
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